श्रीमद भगवद गीता : ११

यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।

यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ।।१५-११।।

 

 

यत्न करने वाले योगी लोग अपने-आपमें स्थित इस परमात्मतत्त्वका अनुभव करते हैं। परन्तु जिन्होंने अपना अन्तःकरण शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अविवेकी मनुष्य यत्न करनेपर भी इस तत्त्वका अनुभव नहीं करते। ।।१५-११।।

 

भावार्थ:

परमात्मतत्त्व को प्राप्त करना ज्ञान का विषय नहीं है, अपितु अनुभव का विषय है। अध्याय १५ श्लोक १० में, कर्त्ता, कार्य और कारण का जो ज्ञान-विज्ञान कहा गया है, उसको जानने के बाद योगी को अन्तःकरण शुद्ध करने के लिये यत्न करने को कहा गया है। अन्तःकरण को शुद्ध करने की जो प्रक्रिया है उसको योग साधना कहते है। जिसमें कर्म योग और ध्यान योग आता है।

भगवान श्री कृष्ण कहते है कि जो साधक योग साधना के दुवारा यत्न करता है वह ही परमात्मतत्त्व का अनुभव करता है। योग साधना से ही विवेक की जाग्रति होती है और तभी साधक सब विषयों को ठीक-ठीक अनुभव करता है। जो साधक योग, साधना के दुवारा अन्तःकरण की शुद्धि नहीं करता और केवल कर्त्ता, कार्य और कारण का जो ज्ञान-विज्ञान है, उसको जानता है, वह जानने के बाद भी परमात्मतत्त्व का अनुभव नहीं कर सकता।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

भीतर की लगन, जिसे पूर्ण किये बिना चैन से न रहा जाय, यत्न कहलाती है। जिन साधकों का एकमात्र उद्देश्य परमात्मतत्त्व को प्राप्त करना है, उनको उद्देश्य पूर्तिके लिये अनन्यभावसे जो उत्कण्ठा, तत्परता, व्याकुलता, विरहयुक्त चिन्तन, प्रार्थना एवं विचार साधक के हृदयमें प्रकट होते हैं, उन सबको यहाँ यत्न समझना चाहिये।

 

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