श्रीमद भगवद गीता : १५

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो

मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।

वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो

वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ।।१५-१५।।

 

 

मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है। समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ। ।।१५-१५।।

भावार्थ:

शरीर में होने वाली क्रिया का ज्ञान और शक्ति कहा से प्राप्त है, इसका वर्णन पूर्व श्लोक और इस श्लोक में हुआ है।

शरीर में होने वाली क्रिया के सन्दर्भ में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि ह्रदय के धड़कने एवं रक्त चाप के लिए जो ज्ञान और शक्ति शरीर को प्राप्त है, वह परमात्मतत्व से प्राप्त होती है।

शरीर में गुर्दे रक्त शोधन का काम करता है, जिससे रक्त में से विकार बहार निकलता है। इस प्रक्रिया को अपोहन कहते है। अतः गुर्दे से अपोहन का जो कार्य है, उसके होने का कारण परमात्मतत्व है।

मनुष्य इन्द्रियों से जो कुछ भी देखता, सुनता, स्पर्श करता है, उसका अनुभव स्मृति रूप में शरीर और बुद्धि में स्थित रहता है।  मनुष्य जो भी कार्य करता, या उसके साथ होता है, वह सब स्मृति रूप में स्थित रहता है। यह स्मृति ही मनुष्य के कार्य करने में सहायक होती है। स्मृति के साथ, मनुष्य के पास कल्पना करने का भी गुण है। मनुष्य की बुद्धि भूतकाल की स्मृति और भविष्य की परिकल्पना करके प्राप्त परिस्थिति के अनुरूप कार्य करता है।

इस प्रकार स्मृति, परिकल्पना और बुद्धि के यथावत कार्य के लिये ज्ञान और शक्ति भी परमात्मतत्व से प्राप्त होती है।

सृष्टि में जो कुछ भी प्रतिष्ठित है और जो कुछ भी क्रिया हो रही है, उसके पीछे सिद्धांत है, ज्ञान है और शक्ति है, वह परमात्मतत्व से प्राप्त है। इन सब सिद्धांत और ज्ञान का वर्णन यथावत रूपसे वेदों में हुआ है। वेदों का अध्यन करने पर यह ही ज्ञात होता है कि सभी कुछ का कारण परमात्मतत्व है अतः वेदों में दिया हुआ ज्ञान अन्ततः परमात्वतत्व से प्राप्त है। इसमें मनुष्य का अपना कुछ भी ज्ञान नहीं है।

इसलिये कहा जाता है की वेदों सभी में कुछ प्रतिपादित परमात्मा के द्वारा हुआ है, मनुष्य के द्वारा नहीं। और वेदों के द्वारा जानने योग्य विषय परमात्मतत्व ही है।

 

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