श्रीमद भगवद गीता : १८

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।

अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ।।१५-१८।।

 

 

मैं क्षरसे अतीत हूँ और अक्षरसे भी उत्तम हूँ, इसलिये लोकमें और वेदमें पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध हूँ। ।।१५-१८।।

 

भावार्थ:

“मैं” पद से भगवान श्रीकृष्ण शरीर रूप में स्वयं अपने को संबोधित करते है। पूर्व श्लोक में जिस उत्तम पुरुष का वर्णन हुआ है, वह पुरुष मनुष्य शरीर में भगवान श्रीकृष्ण है।

योग में स्थित होने के कारण भगवान श्रीकृष्ण क्षर (शरीर) से कोई सम्बन्ध नहीं मानते, इसलिये वह क्षर से अतीत है।

शरीर से पर (व्यापक, श्रेष्ठ, प्रकाशक, सबल, सूक्ष्म) इन्द्रियाँ हैं। इन्द्रियों से पर मन है, और मन से पर बुद्धि है (अध्याय ३ श्लोक ४२)। बुद्धि से पर चेतन तत्व (अक्षर) है। बुद्धि अज्ञानता (अहंकार) वश स्वयं को अक्षर (चेतन तत्व) मानती है। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण में ऐसा कोई अज्ञान, विकार नहीं है, इसलिये वह अक्षर से उत्तम है। यहाँ ‘अक्षर’ से बुद्धि के अहंकार को लेना चाहिये।

इसलिये जो पुरुष योग में स्थित है और स्थित रह कर संसार के सभी कार्यों को करता है, ऐसे पुरुष को वेदों में पुरुषोत्तम कहा गया है।

और क्योकि भगवान श्रीकृष्ण योग में स्थित है इसलिये वह पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध है।

 

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