भावार्थ:
अध्याय १५ श्लोक ३ में कहा गया है कि साधक को दृढ़ता से संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करना चाहिये। संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करने के बाद, परमात्मतत्व की खोज करनी चाहिये। परमात्मतत्व को प्राप्त करने की लिये अहंता का त्याग करके परमात्मतत्व के प्रति पूर्ण समर्पण (‘मैं शरण हूँ’) कर देना चाहिये। अर्थात निदिध्यासन के अभ्यास के शान्त क्षणों में साधक को अपना ध्यान जगत् एवं उपाधियों से निवृत्त कर उस ऊर्ध्वमूल परमात्मा के चिन्तन में लगाना चाहिये।
परमात्मतत्व को इस श्लोक में ‘चाद्यं पुरुषं’ पद दिया है। जिसका कोई आदि नहीं है; किन्तु जो सबका आदि है, उस आदिपुरुष परमात्माका ही आश्रय (सहारा) लेना चाहिये।
कारण की परमात्मतत्व को प्राप्त हो जाने के बाद योग सिद्ध साधक फिर परमात्मा से अलग नहीं होता।
प्राणि मात्र का यह स्वभाव है कि वह उसीका आश्रय लेना चाहता है और उसीकी प्राप्तिमें जीवन लगा देना चाहता है, जिसको वह सबसे बढ़कर मानता है अथवा जिससे उसे कुछ प्राप्त होनेकी आशा रहती है। जैसे संसारमें लोग रुपयोंको प्राप्त करनेमें और उनका संग्रह करनेमें बड़ी तत्परतासे लगते हैं, क्योंकि उनको रुपयोंसे सम्पूर्ण मनचाही वस्तुओंके मिलनेकी आशा रहती है। वे सोचते हैं — शरीरके निर्वाहकी वस्तुएँ तो रुपयोंसे मिलती ही हैं, अनेक तरहके भोग, ऐश-आरामके साधन भी रुपयोंसे प्राप्त होते हैं। इसलिये रुपये मिलनेपर मैं सुखी हो जाऊँगा तथा लोग मुझे धनी मानकर मेरा बहुत मान-आदर करेंगे।’ इस प्रकार रुपयोंको सर्वोपरि मान लेनपर वे लोभके कारण अन्याय, पापकी भी परवाह नहीं करते। यहाँतक कि वे शरीरके आरामकी भी उपेक्षा करके रुपये कमाने तथा संग्रह करनेमें ही तत्पर रहते हैं। उनकी दृष्टिमें रुपयोंसे बढ़कर कुछ नहीं रहता। इसी प्रकार जब साधकको यह ज्ञात हो जाता है कि परमात्मासे बढ़कर कुछ भी नहीं है और उनकी प्राप्तिमें ऐसा आनन्द है, जहाँ संसारके सब सुख फीके पड़ जाते हैं, तब वह परमात्माको ही प्राप्त करनेके लिये तत्परतासे लग जाता है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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