श्रीमद भगवद गीता : २७

ध्यान योग की प्रक्रिया और उसके लाभ।

 

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।

प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ।।५.२७।।

 

बाह्य पदार्थों को बाहर ही छोड़कर और नेत्रों की दृष्टि को भौंहों सीध में सामने की ओर एक बिन्दु पर केन्द्रित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपान वायु को सम करना परमात्मा के चिन्तन में सहायक है।  ||५-२७||

भावार्थ:

मनुष्य जबतक संसारिक विषयों का चिन्तन करता है, तब तक उसमें राग-द्वेष की निवृति नहीं होती (अध्याय २ श्लोक ६१)। राग-द्वेष रहने से कामना, क्रोध और अन्तः बुद्धि का नाश होता है (अध्याय २ श्लोक ६२)।

संसारिक विषयों के चिन्तन से निवारण पाने के लिये भगवान श्रीकृष्ण एकान्त समय में परमात्मा का चिन्तन करने के आज्ञा देते है (अध्याय ४ श्लोक १०)। परमात्मा का चिन्तन करने वाले साधक को अध्याय ५ श्लोक २४ में अन्तरारामः पद दिया है।

परमात्मा का चिन्तन किस प्रकार हो उस साधना का वर्णन इस श्लोक में हुआ है। इस साधना को ध्यान योग कहा गया है, और इसका विस्तार से वर्णन अध्याय ६ श्लोक १० से अध्याय ६ श्लोक २० में हुआ है।

दृष्टि को नेत्र के मध्य में स्थित करके भौंहों की सीध में सामने की ओर एक बिन्दु पर केन्द्रित करे। पलके अर्ध रूप से मूँद कर रखे।

नासिका से बाहर निकलने वाली वायु को ‘प्राण’ और नासिका के भीतर जाने वाली वायु को ‘अपान’ कहते हैं। प्राण वायु की गति दीर्घ और अपान वायु की गति लघु होती है। सर्व प्रथम साधक शरीर में होने वाली प्राण-अपान क्रिया को द्रष्टा रूपसे देखे; अनुभव करे। प्राण और अपान क्रिया को इस प्रकार नियमित करे की दोनों क्रियाओं में बराबर का समय लगे। इस प्रकार लगातार अभ्यास करते रहनेसे प्राण और अपानवायुकी गति सम, शान्त और सूक्ष्म हो जाती है।

जब नासिका के बाहर और भीतर तथा कण्ठादि में वायु के स्पर्श का ज्ञान होना बंद हो जाय, तब समझना चाहिये कि प्राण-अपान की गति सम हो गयी है। इन दोनोंकी गति सम होने पर और लक्ष्य परमात्मा का रहने से मन से स्वाभाविक ही परमात्मा का चिन्तन होने लगता है।

परमात्मा का चिन्तन, मनन करने वाले को मुनि कहा गया है।

साधना के आरम्भ काल में प्राण-अपान की गति को सम करने के लिये पहले बायीं नासिका से अपान वायु को भीतर ले जाकर दायीं नासिका से प्राण वायु को बाहर निकाले। फिर दायीं नासिका से अपान वायु को भीतर ले जाकर बायीं नासिका से प्राण वायु को बाहर निकाले।

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