श्रीमद भगवद गीता : ०१

कर्मफल पर आश्रित न होना सन्यास है; कर्तव्य कर्म करना योग है।

 

श्री भगवानुवाच

 अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।

स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।।६.१।।

 

श्रीभगवान् ने कहा: जो कर्मफल पर आश्रित न होकर केवल कर्तव्य कर्म करता है, वह संन्यासी और योगी है; केवल अग्नि, क्रियाओं का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं होता। ||६-१||

 

भावार्थ:

अध्याय ४ श्लोक २० में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि मनुष्य जब कर्म करता है और कर्मफल से सम्बन्ध नहीं मानता और कर्मफल का आश्रय नहीं लेता, तब उसके कर्म अकर्म हो जाते है। अर्थात वह कर्म (कार्य) बाँधने वाले नहीं होते। भगवान पुनः इस श्लोक में कर्मफल का आश्रय न लेकर कर्तव्य कर्म करने पर बल देते हैं। साथ ही कहते है कि कर्मफल से सम्बन्ध नहीं मानना और कर्मफल पर आश्रित नहीं होना सन्यास है – योग है।

मनुष्य जब कोई कार्य करता है, तब उस कार्य का फल मिलना निश्चित हैं। कार्य के फल स्वरूप प्रकृति से प्राप्त होती है – उत्पति-विनाशशील वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि। प्रकृति से प्राप्त फल के आश्रित नहीं होने का अर्थ है, उसमें अहंता या ममता न करना, राग-द्वेष न करना, और अपने जीवन को उनके आश्रित न मानना।

कर्मफल का आश्रय न लेने से फल का भोग नहीं होगा और भोग न होने से अपने लिये नई कामना उत्तपन्न नहीं होगी। साधक जब दूसरों के हित के लिये कार्य करता है, तब उस कार्य का फल भी दूसरों के लिये होता है। स्वयं के लिये फल न मानना से, फल का भोग लेना स्वतः ही मिट जाता है। दूसरों के हित के लिये कार्य करने से स्वयं की कामना पूर्ति के लिये कार्य करने का वेग भी मिट जाता है।

यह शरीर भी हमे प्रकृति से फल स्वरूप में ही मिला हैं। इसलिए साधक को अपने शरीर का भी आश्रय नहीं लेना चाहिये। शरीर का आश्रय न लेने का अर्थ हैं – शरीर को अपना और अपने लिये न मानते हुए, उस शरीर को दूसरों के हितके लिये कार्य में लगा देना।

संसार से मिले पर्दार्थ और शरीर को अपनी या अपने लिये न मान कर संसार की सेवा में लगा देना ही संन्यास हैं।

भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट करते है कि केवल संसारिक पदार्थों का त्याग करना, या वन में जाकर शरीर से कोई क्रिया न करना, सन्यास नहीं है – योग नहीं है।

अतः जो मनुष्य कर्तव्य-कर्मों को करते हुए कर्मों की सिद्धि-असिद्धि में सम रहता हैं, कर्मफल की प्राप्ति-अप्राप्तिमें सम रहता हैं, कर्मफल स्वरूप अनुकूल-प्रतिकुल परिस्थिति में सम रहता है और कर्मफल का आश्रय नहीं लेता वह ही ‘योगी’ हैं।

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