श्रीमद भगवद गीता : ०५

अपना उद्धार-पतन, मनुष्य के अपने हाथ में है।

 

उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।६-५।। 

 

मनुष्य अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे; क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है। ।।६-५।।

 

भावार्थ:

उद्धार का अर्थ है मुक्त होना या ऊपर उठना। मुक्ति बन्धन से है। ऊपर उठना परिस्थिति को लेकर ही हो सकता है। जैसा की पहले के श्लोकों में कहा गया है कि मनुष्य जब तक प्राकृतिक पदार्थों का भोग भोगता रहता है, शरीर में ममता, अहंता रहती है और कर्मों में आसक्ति रहती है, तब-तक मनुष्य सुःख-दुःख रूपी बन्धन में बंधा रहता है। अन्य जीवों के अन्यथा मनुष्य को विवेक प्राप्त है जिससे वह अपनी वर्तमान परिस्थिति को जान सकता है और उससे ऊपर उठना का निश्चय कर सकता है।

अध्याय २ श्लोक ५२ में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि, जिस मनुष्य की बुद्धि भोग, मोह में ही रहती है उसकी स्थिति दलदल में होने जैसी है और उसमें फँस कर वह पतन की ओर अग्रसर होता जाता है।

अतः भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में मनुष्य को विवेक के द्वारा अपना उद्धार करने की प्रेरणा देते है और पतन की ओर न जाने की चेतावनी भी देते है। साथ ही मनुष्य को यह भी समझाते है कि, उसकी वर्तमान परिस्थिति का कारण वह स्वयं है, कोई दूसरा नहीं। उस से ऊपर उठने के लिये उसको कही ओर जाने की जरूरत नहीं, केवल अपने उद्धार/कल्याण के लिये एक निश्चित बुद्धि करके, अपने विवेक को जाग्रत करने की जरूरत है।

प्राय मनुष्य सुःख का कारण तो स्वयं को मानता है, परन्तु दुःख का कारण दूसरे को। सत्य यह है की सुख और दुःख का कारण मनुष्य स्वयं है। अतः भगवान, मनुष्य को ही स्वयं का मित्र एवम शत्रु कहते है।

मनुष्य का सम्बन्ध न तो प्रकृति पदार्थों से है न ही अपने माने हुए शरीर से है। मनुष्य स्वयं जो चेतनतत्व है, उसका सम्बन्ध वह स्वयं (चेतनतत्व ) से ही माने।

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