श्रीमद भगवद गीता : ०९

समबुद्धि युक्त साधक के आचरण का वर्णन।

 

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।

साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते।।६-९।। 

 

सुहृद्, मित्र, शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और सम्बन्धियों में तथा साधु-आचरण करनेवालोंमें और पाप-आचरण करनेवालोंमें भी समबुद्धि युक्त मनुष्य श्रेष्ठ है। ।।६-९।।

भावार्थ:

इस श्लोक में समबुद्धि युक्त साधक का आचरण किस प्रकार का होता है, उसका वर्णन है। प्राणियों में समता किस प्रकार से हो इसका विस्तार से वर्णन इस श्लोक में हुआ है।

सुहृद् : अन्यों का हित चाहने वाला और हित करने वाला सुहृद् कहलाता है। समता युक्त साधक सभी प्राणीओं में सुहृद् का भाव रखता है। अन्य व्यक्तियों के आचरण से उसका सुहृद् का भाव बदलता नहीं।

मित्र : उपकार के बदले उपकार करने वाला मित्र कहलाता है। समता युक्त साधक किसी का हित करने पर, उस हित को उपकार नहीं मानता। अतः वह उपकार के बदले उपकार की आशा भी रखता।

अरि : जो अन्यों का अहित चाहें, अहित करे उसको अरि कहते है। समता युक्त साधक स्वयं किसी का अरि नहीं होता। जो उसके प्रति अरि का भाव रखता है, उसके प्रति भी सुहृद् का भाव ही रखता है।

उदासीन :  समाज में होने वाली शुभ-अशुभ कार्य एवं परिस्थिति के प्रति समता युक्त साधक उदासीन रहता है। उसके स्वयं में किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं होती। शुभ-अशुभ कार्य एवं परिस्थिति के अनुरूप कार्य करना अगर उसका कर्तव्य है तब वह उसको तत्परता से करता है।

मध्यस्थ : दो पक्षों के का आपस में वाद-विवाद होने पर अगर समता युक्त साधक को अगर मध्यस्थ करने को कहा जाय, तब, वह निष्पक्ष भाव से अपने वचन कहता है। उसके वचन धर्म और न्याय संगत होने है। वह किसी एक का पक्ष अपने स्वार्थ या राग-द्वेष भाव से नहीं लेता।

द्वेष्य : अन्य के प्रति ईर्ष्या रखना द्वेष्य है। ईर्ष्या रहने पर मनुष्य अन्य का अहित भी कर देता है। समता युक्त साधक अन्य के प्रति ईर्ष्या की भावना नहीं रखता। कारण कि वह स्वयं में किसी प्रकार का आभाव नहीं देखता, की उसको अन्यों में भाव दिखे। समता युक्त साधक सभी की स्थिती का कारण परमात्मा को देखता है।

बन्धु : आप के सुख में सुखी होने वाला, आप का हित चाहने वाला आपका बन्धु है। समता युक्त साधक के अपने कोई सुख नहीं होते। वह अन्यों की सेवा और सुख में ही अपना सुख देखता है। इसलिये वह प्राणी मात्र का बन्धु होता है। एक ही परिवार के, कुल के, अथवा समाज के व्यक्ति भी अपने को सम्बन्धी मानने के कारण एक दूसरे के बन्धु होते है।  परन्तु समता युक्त साधक का किसी प्रकर का सम्बन्ध न होने पर भी सभी का बन्धु होता है।

इस प्रकार पूर्व लिखित आचरणों को श्रेष्ठ रूप से करने वाला साधु कहलाता है। पाप पूर्ण आचरण करने वाला पापी कहलाता है। भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में कहते है कि समता युक्त साधक साधु और पापी के प्रति सम भाव रखता है। व्यवहार काल में समता युक्त साधक व्यक्ति के आचरण के अनुरूप व्यवहार और स्वयं के कार्य करता है। परन्तु स्वयं के अन्तःकरण में दोनों प्रकार के व्यक्तियों के प्रति राग-द्वेष का भाव नहीं रखता।

PREVIOUS                                                                                                                                          NEXT

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]

Read More

अध्याय