श्रीमद भगवद गीता : १५

ध्यान योग से संयमित मन वाला योगी, निर्वाण और परम शान्ति को प्राप्त होता है।

 

युञ्जन्नेवं सदाऽऽत्मानं योगी नियतमानसः।

शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।।६-१५।।

 

इस प्रकार सदा मन को स्थिर करने का प्रयास करता हुआ संयमित मन का योगी मुझमें स्थित परम निर्वाण (मोक्ष) स्वरूप शांति को प्राप्त होता है। ।।६-१५।।

 

भावार्थ:

इस प्रकार प्रतिदिन नियमित रूप से एकान्त समय में ध्यान योग का अभ्यास करना चाहिये। और साधक, मनको संसार से हटाकर परमात्मा में लगाते रहना चाहिये। परमात्मा का चिन्तन एकान्त समय एवं व्यवहार समय में निरन्तर बना रहना चाहिये।

यहां व्यवहार काल का अर्थ निर्वाह के लिये होने वाले कार्य और मनुष्य धर्म के हेतु होने वाले कार्य से है।

इस प्रकार मन को संयमित करने के लिये ध्यान योग का अभ्यास करने से साधक का अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। उसका संसार से अपना माने हुये सम्बन्ध से विच्छेद हो जाता है।

मनुष्य का जब तक संसार और शरीर से सम्बन्ध रहता है, तब तक उसको मृत्यु का भय रहता है। अन्तःकरण की शुद्धि होने पर साधक, मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। मृत्यु के भय से मुक्त होना ही निर्वाण की प्राप्ति है। और वह अपने स्वरूप में स्थित हो कर परम शान्ति को प्राप्त होता है।

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