श्रीमद भगवद गीता : १८

निःस्पृह और नियमित चित्त का अपने स्वरूप में स्थित होना ही योग में स्थित होना है।

 

 

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।

निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा।।६-१८।। 

 

नियमित किया हुआ चित्त जिस कालमें अपने स्वरूपमें ही स्थित हो जाता है और स्वयं सम्पूर्ण पदार्थोंसे निःस्पृह हो जाता है, उस कालमें वह योगी – योग में स्थित कहा जाता है। ।।६-१८।।

 

भावार्थ:

योग में स्थित होने के लक्षण का वर्णन इस श्लोक से अध्याय ६ श्लोक २३ तक हुआ है।

जिस काल में इन्द्रियों के विषयों से नियमित हुआ चित परमात्मता में स्थित हो जाता है, उस काल में योगी योग में स्थित कहलाता है।

संसारिक व्यवहार काल में जब योगी की समस्त प्राकृतिक पदार्थीं के प्रति उत्त्पन्न होने वाली स्पृहा का त्याग हो जाता है, उस काल में योगी योग में स्थित है।

सुखों की सम्भावना प्रतीत होने पर जो अप्राप्त वस्तु,परिस्थिति, को प्राप्त करने की जो जरूरत दीखती है वह सधारण मनुष्य के मन में स्पृहा होती है। वस्तुओं की आवश्यकता प्रतीत होना ‘स्पृहा’ है। स्पृहा में भाव होता है की प्राप्त वस्तु,परिस्थिति ऐसी ही बनी रहे; यह वस्तु, परिस्थिति सदा मिलती रहे। अध्याय २ श्लोक ५६, में स्पृहा से रहित होने का विषय आया है।

अध्याय ६ श्लोक ४, में कर्तव्यों को करते समय, जब साधक क्रियाओं में आसक्ति एवं सम्पूर्ण संकल्पों का त्याग कर देता है तब वह योगारूढ़ हो जाता है। यह योग की प्रथम स्तिथि है। इस स्तिथि में अन्तःकरण की शुद्धि होती है। जब अन्तःकरण की शुद्धि के साथ अन्तःकरण में परमात्मा का ही चिंतन रहता है और कर्तव्यों को करते समय प्राप्त फल की स्पृहा भी नहीं रहती तब, योगी योग में स्थित है।

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