श्रीमद भगवद गीता : २६

मन इतना चंचल है की वह संसार के एक विषय पर भी स्थिर नहीं होता।

 

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।

ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ।।६-२६।।

 

यह चंचल और अस्थिर मन जिन कारणों से (विषयों में) विचरण करता है, उनसे संयमित करके उसे आत्मा में स्थिर करे। ।।६-२६।।

 

भावार्थ:

पूर्व श्लोक में योग प्रक्रिया का अभ्यास निरन्तर, धीरे-धीरे, धैर्य पूर्वक, एवं बुद्धि के दृढ़ निश्चय के साथ करे ऐसा कहा है।

योग सिद्धि में सबसे (दीर्ध) बड़ी बाधा मन की अस्थिरता और चञ्चलता है। यह मन तरह-तरह के सांसारिक भोगों का, पदार्थों का चिन्तन करता है। इस कारण मन न तो परमात्मा में स्थिर होता है और न संसार का त्याग करता है। मन इतना चंचल है की वह संसार के एक विषय पर भी स्थिर नहीं होता। अतः मन को स्थिर करने के लिये बुद्धि में दृढ़ निश्चय और धैर्य की आवश्यकता है।

मनुष्य जितना अधिक कामना पूर्ति के लिये कार्य करता चला जाता है, उतना अधिक मन चञ्चल होता जाता है। विचार करने पर यह भी ज्ञात होगा कि मन उन-उन विषयों की ओर जाता है जिन विषयों से मनुष्य का सम्बन्ध होता है। जिन पदार्थो और परिस्थिति मे राग-द्वेष होता है, उनको प्राप्त अथवा अप्राप्ति के लिए मन में विकल्पों का विचार होता। भूत काल की जिन विषयों के प्रति सम्बन्ध होता है, उनका स्मरण होता है।

अतः जब तक मनुष्य कामना पूर्ति के लिये कार्य करता रहेगा, तब तक संसार से सम्बन्ध बना रहता है और मन की चञ्चलता बनी रहती है। अतः मनुष्य के कोई भी कार्य कामना पूर्ति के लिये नहीं होने चाहिये।

रजोगुण के कारण मनुष्य में कार्य करने की प्रवृति होती है। उस प्रवृति को शान्त करने के लिये और कामना का त्याग करने के लिये मनुष्य जो भी कार्य करे, वह समाज कल्याण, समाज सेवा के लिये करे।

आरम्भ में, मुझे समाज सेवा के लिये कार्य करने है ऐसा संकल्प करके समाज सेवा के कार्य करे। तत्पश्चात् केवल उन कार्यों को ही करे जो कर्तव्य रूप से स्वयं से प्राप्त हुये हो। जो स्वधर्म में आते हो। कारण कि, जब मनुष्य समाज सेवा के कार्य करता है, तब उसके कार्य की प्रशंसा होती है, मान-सम्मान बढ़ता है, जिससे अहंता आती है। जो एक विकार है। साथ ही ऐसा विचार करे कि, यह सभी कार्य परमात्मा कृपा से हो रहे है, और इनके होने में परमात्मा ही कारण है।

प्रतिदिन प्राप्त कर्तव्य और जीवन निर्वाह सम्बन्धी कार्य तत्परता से पूर्ण करके एकान्त समय में ध्यान योग (परमात्मा का चिन्तन) करे।

व्यवहार काल में जब समस्त कार्य अन्यों के लिए करना,  जिनके लिए कार्य करने है उनसे सम्बंध न होना, फल की सिद्धि असिद्धि में समता,  फल के हेतु का त्याग।

ऐसा करने से ध्यान अभ्यास में मन परमात्मा में लगाने में सहायता होती है।

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