श्रीमद भगवद गीता : २८

सदा आत्मा में स्थित योगी परमसुख देने वाली ब्रह्मसंस्पर्श की अनुभूति करता है।

 

युञ्जन्नेवं सदाऽऽत्मानं योगी विगतकल्मषः।

सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते।।६-२८।।

 

इस प्रकार मन को सदा आत्मा में स्थिर करने का योग करने वाला पापरहित योगी सुखपूर्वक ब्रह्मसंस्पर्श से परमसुख को प्राप्त करता है। ।।६-२८।।

भावार्थ:

निरन्तर योग का अभ्यास करने पर, योग की सिद्धि होने पर क्या स्थिति होती है, उसका वर्णन इस श्लोक में हुआ है।

योग में स्थित साधक जब अपनी स्थिति को बनाये रखने के लिये निरंतर अभ्यास करता है, तब उसकी योग में स्थिति दृढ़ होती जाती है। एक स्थिति ऐसी आती है जब अभ्यास की आवश्यकता नहीं रहती। मन-बुद्धि स्वतः ही परमात्मा में स्थिर हो जाते है और संसार के विषय और शरीर से पूर्ण रूप से सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। और तब मन परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त हो जाता है और उसे ब्रह्मसंस्पर्श के परम सुख की अनुभूति होती है और वह उसमें स्थित रहता है।

मनुष्य को प्रकृति पदार्थ एवम प्रकृति में हो रही क्रिया का ज्ञान इन्द्रियों से होता है। अध्याय २ श्लोक १४ में इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान को मात्रास्पर्शाः पद दिया है। इन्द्रियों के विषय में राग-द्वेष होने से मनुष्य को सुख-दुःख होता है जो अनित्य है। परन्तु जब योग साधना के द्वारा मनुष्य का इन्द्रियों के विषय से सम्बन्ध का त्याग हो जाता है, तब जो अनुभूति होती है उसको इस श्लोक में ब्रह्मसंस्पर्श कहा है। ब्रह्मसंस्पर्श की अनुभूति परम् सुख प्रदान करती है, जो नित्य रहती है।

PREVIOUS                                                                                                                                          NEXT

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]

Read More

अध्याय