भावार्थ:
निरन्तर योग का अभ्यास करने पर, योग की सिद्धि होने पर क्या स्थिति होती है, उसका वर्णन इस श्लोक में हुआ है।
योग में स्थित साधक जब अपनी स्थिति को बनाये रखने के लिये निरंतर अभ्यास करता है, तब उसकी योग में स्थिति दृढ़ होती जाती है। एक स्थिति ऐसी आती है जब अभ्यास की आवश्यकता नहीं रहती। मन-बुद्धि स्वतः ही परमात्मा में स्थिर हो जाते है और संसार के विषय और शरीर से पूर्ण रूप से सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। और तब मन परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त हो जाता है और उसे ब्रह्मसंस्पर्श के परम सुख की अनुभूति होती है और वह उसमें स्थित रहता है।
मनुष्य को प्रकृति पदार्थ एवम प्रकृति में हो रही क्रिया का ज्ञान इन्द्रियों से होता है। अध्याय २ श्लोक १४ में इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान को मात्रास्पर्शाः पद दिया है। इन्द्रियों के विषय में राग-द्वेष होने से मनुष्य को सुख-दुःख होता है जो अनित्य है। परन्तु जब योग साधना के द्वारा मनुष्य का इन्द्रियों के विषय से सम्बन्ध का त्याग हो जाता है, तब जो अनुभूति होती है उसको इस श्लोक में ब्रह्मसंस्पर्श कहा है। ब्रह्मसंस्पर्श की अनुभूति परम् सुख प्रदान करती है, जो नित्य रहती है।
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