भावार्थ:
अध्याय २ श्लोक ४० में भगवान श्री कृष्ण पहले ही कहे चुके है कि योग की साधना में जितनी भी समता प्राप्त हो जाती है उसका कभी नाश नहीं होता और उसका कोई विपरीत फल नहीं होता। अध्याय २ श्लोक ४५ में वर्णन किया है कि तुम केवल योग की साधना करो और योग की प्राप्ति एवं संरक्ष्ण की चाहना भी मत रखो। कारण की पाप और पुण्य का तो जमा-घटा होता है, परन्तु साधक जितना योग में स्थित हो गया , जितनी समता की प्राप्ति हो गयी, विषमता का त्याग हो गया वह तो मनुष्य के साथ रहने वाला ही है और कल्याण करेगा ही।
पुनः इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण कहते कि योग आरूढ़ साधक का नाश न तो इस लोक में और न ही परलोक में ही होता है। कारण की जिसने कल्याणकारी कार्य कर लिये है तो उसकी दुर्गति का तो कोई कारण ही नहीं है।
श्लोक का परिपेक्ष्य:
पुनः विचार करे कि योग साधना क्या है।
पहला है विषमता का त्याग और समता की प्राप्ति। विषमता का कारण है प्रकृति पदार्थों में आकर्षण, राग-द्वेष, और उससे उतपन्न कामना। कामना पूर्ति पर प्राप्त वास्तु का भोग।
दूसरा है ममता और अहंता का त्याग।
विषमता, ममता और अहंता का होना ही सुख-दुःख का कारण है। और इनका त्याग करने से ही समता और परमान्द की प्राप्ति है।
साधना करते हुए साधक जितना-जितना विषमता, ममता और अहंता का त्याग करता जाता है उतना-उतना उसमे समता का भाव होता जाता है। अतः जीवन कल में जब तक एवं जब-जब विषमता, ममता और अहंता का भाव उत्तपन्न होगा तब-तब वह भाव सुख-दुःख का कारण बनेगा।
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