श्रीमद भगवद गीता : ४२

योग आरूढ़ साधक अति दुर्लभ ज्ञानवान् योगियों के कुल में जन्म लेता है।

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।

एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्।।६-४२।।

 

अथवा, योग आरूढ़ साधक ज्ञानवान् योगियों के कुल में जन्म लेता है, और इस प्रकार का जन्म इस लोक में नि:संदेह अति दुर्लभ है। ।।६-४२।।

भावार्थ:

पूर्व श्लोक (अध्याय ६ श्लोक ४१) में वर्णित द्वितीय अवस्था का साधक जब मृत्यु को प्राप्त होता है, तब उसका क्या होता है, इस का वर्णन इस श्लोक में हुआ है।

द्वितीय अवस्था के साधक का ब्रह्म प्राप्ति के मार्ग से विचलित (योग भ्र्ष्ट) होने का तत्पार्य इस प्रकार है।

  1. मन का परमात्मा में स्थिर न होना या यदा-कदा सांसारिक विषयों का चिन्तन होना।
  2. बुद्धि से अहंता का पूर्ण रूप से त्याग न होना, या अहंता रहित योगी में पुनः अहंता उत्त्पन्न हो जाना।
  3. शरीर से ममता के कारण सभी प्राणियों में एकत्वभाव को न देख पाना।

द्वितीय अवस्था का साधक मृत्यु को प्राप्त होने पर ज्ञानवान् योगियों के कुल में जन्म लेता है। ज्ञानवान् योगियों के कुल से तात्पर्य है, वह कुल जिसमें पूर्व काल में महापुरुष योगी परमात्मतत्त्व को प्राप्त कर चुके हैं और वर्तमान में स्थित योगी साधना में रत है।

भगवान श्रीकृष्ण कहते है की तत्त्वज्ञ जीवन मुक्त योगी महापुरुषों के कुल में जन्म होना अति दुर्लभ है। कारण कि उन योगियों के कुल में, घर में स्वाभाविक ही पारमार्थिक वायुमण्डल रहता है। वहाँ सांसारिक भोगों की चर्चा ही नहीं होती। अतः वहाँ के वायुमण्डल से, दृश्य से, तत्त्वज्ञ महापुरुषों के सङ्गसे, अच्छी शिक्षा आदि सुगमता से मिल जाती है।

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