भावार्थ:
तत्त्वज्ञ जीवन मुक्त महापुरुषों के कुल में जन्म होने के बाद उस द्वितीय अवस्था के साधक की क्या दशा होती है, इसका वर्णन इस श्लोक में हुआ है।
संसार से विरक्त उस साधक को पुन प्रारम्भ से साधना का अभ्यास करना नहीं पड़ता। पर्व जन्म में जितनी साधना सिद्ध की थी, वह संस्कार रूप में वर्तमान जन्म में स्थित रहती है। पूर्व जन्म की साधन-सामग्री अनायास ही मिल जाती है।वहाँ उसको पूर्वजन्म कृत बुद्धि संयोग मिल जाता है और वहाँ का सङ्ग अच्छा होने से साधन की अच्छी बातें मिल जाती हैं, साधन की युक्तियाँ मिल जाती हैं। जिस के कारण उसमें उत्साह क्षमता तथा प्रयत्न की कमी नहीं होती। और वह योग सिद्धि प्राप्त करनेके लिये फिर और भी अधिक प्रयत्न करता है।
इस प्रकरण से स्पष्ट होता है कि यह आशंका करना कि पुनर्जन्म लेने पर साधक को पुन प्रारम्भ से साधना का अभ्यास करना पड़ेगा। यह आशंका निर्मूल है। अतः मनुष्य को वर्तमान जीवन में द्वितीय अवस्था की प्राप्ति के लिये तत्पर्ता से प्रयत्न करना चाहिये।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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