श्रीमद भगवद गीता : ४३

साधना के लिये पूर्वजन्मकृत साधन-सम्पत्ति पुनः जन्म में अनायास ही प्राप्त हो जाती है।

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।

यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन।।६-४३।।

 

हे कुरुनन्दन! वहाँपर उसको पूर्वजन्मकृत साधन-सम्पत्ति अनायास ही प्राप्त हो जाती है। फिर उससे वह साधनकी सिद्धिके विषयमें पुनः विशेषतासे यत्न करता है। ।।६-४३।।

भावार्थ:

तत्त्वज्ञ जीवन मुक्त महापुरुषों के कुल में जन्म होने के बाद उस द्वितीय अवस्था के साधक की क्या दशा होती है, इसका वर्णन इस श्लोक में हुआ है।

संसार से विरक्त उस साधक को पुन प्रारम्भ से साधना का अभ्यास करना नहीं पड़ता। पर्व जन्म में जितनी साधना सिद्ध की थी, वह संस्कार रूप में वर्तमान जन्म में स्थित रहती है। पूर्व जन्म की साधन-सामग्री अनायास ही मिल जाती है।वहाँ उसको पूर्वजन्म कृत बुद्धि संयोग मिल जाता है और वहाँ का सङ्ग अच्छा होने से साधन की अच्छी बातें मिल जाती हैं, साधन की युक्तियाँ मिल जाती हैं। जिस के कारण उसमें उत्साह क्षमता तथा प्रयत्न की कमी नहीं होती। और वह योग सिद्धि प्राप्त करनेके लिये फिर और भी अधिक प्रयत्न करता है।

इस प्रकरण से स्पष्ट होता है कि यह आशंका करना कि पुनर्जन्म लेने पर साधक को पुन प्रारम्भ से साधना का अभ्यास करना पड़ेगा। यह आशंका निर्मूल है। अतः मनुष्य को वर्तमान जीवन में द्वितीय अवस्था की प्राप्ति के लिये तत्पर्ता से प्रयत्न करना चाहिये।

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