मनुष्य की प्रकृति तीन गुणों से प्रकाशित होती है। मनुष्य के सभी कार्य उन तीन गुणों के प्रभाव में होते है। वह तीन गुण है – सत्त्व, रज, और तम। भगवान श्रीकृष्ण इन त्रिगुण के विषय में तत्व ज्ञान देते है। साथ ही इन त्रिगुण के प्रभाव से उदासीन होने पर साधक परमात्मा को प्राप्त होता है। ऐसे साधक को गुणातीत पद दिया है। साधक गुणातीत किस प्रकार हो, उसका उपाय का वर्णन इस अध्याय में हुआ है।
।।१४-१।। श्री भगवान् ने कहा: समस्त ज्ञानों में उत्तम और परम ज्ञान को मैं पुन: कहूंगा, जिसको जानकर सभी मुनिजन इस संसारसे मुक्त होकर परमसिद्धिको प्राप्त हो गये हैं।
।।१४-२।। इस ज्ञानका आश्रय लेकर जो मनुष्य मेरी सधर्मता को प्राप्त हो गये हैं, वे महासर्गमें भी पैदा नहीं होते और महाप्रलय में भी व्यथित नहीं होते।
।।१४-३।। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! मेरी मूल प्रकृति तो उत्पत्ति-स्थान है और मैं उसमें जीवरूप गर्भ का स्थापन करता हूँ। उससे सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है।
।।१४-४।। हे कुन्तीनन्दन! सम्पूर्ण योनियोंमें प्राणियोंके जितने शरीर पैदा होते हैं, उन सबकी मूल प्रकृति तो माता है और मैं बीज-स्थापन करनेवाला पिता हूँ।
।।१४-५।। हे महाबाहो! प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले सत्त्व, रज और तम – ये तीनों गुण अविनाशी देहीको देहमें बाँध देते हैं।
।।१४-६।। हे पापरहित अर्जुन! उन गुणोंमें सत्त्वगुण निर्मल (स्वच्छ) होनेके कारण प्रकाशक और निर्विकार है। वह सुख और ज्ञानकी आसक्तिसे (देहीको) बाँधता है।
।।१४-७।। हे कुन्तीनन्दन! तृष्णा और आसक्तिको पैदा करनेवाले रजोगुणको तुम रागस्वरूप समझो। वह कर्मोंकी आसक्तिसे शरीरधारीको बाँधता है।
।।१४-८।। हे भरतवंशी अर्जुन! सम्पूर्ण देहधारियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तुम अज्ञान से उत्पन्न होनेवाला समझो। वह प्रमाद, आलस्य और निद्राके द्वारा देहधारियोंको बाँधता है।
।।१४-९।। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! सत्त्वगुण सुख में और रजोगुण कर्ममें लगाकर मनुष्यपर विजय करता है तथा तमोगुण ज्ञानको ढककर एवं प्रमाद में भी लगाकर मनुष्य पर विजंय करता है।
।।१४-१०।। हे भारत! कभी रज और तम को अभिभूत (दबा) करके सत्त्वगुण की वृद्धि होती है, कभी रज और सत्त्व को दबाकर तमोगुण की वृद्धि होती है, तो कभी तम और सत्त्व को अभिभूत कर रजोगुण की वृद्धि होती है।
।।१४-११।।जब इस मनुष्य शरीर में सब द्वारों – (इन्द्रियों और अन्तःकरण-) में प्रकाश (स्वच्छता) और ज्ञान (विवेक) उत्पन्न होता है, तब सत्त्वगुण को प्रवृद्ध हुआ जानो।
।।१४-१२।। हे भरतवंश में श्रेष्ठ अर्जुन! रजोगुण के प्रवृद्ध होने पर लोभ, प्रवृत्ति (सामान्य चेष्टा) कर्मों का आरम्भ, अशान्ति और स्पृहा, ये सब वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं।
।।१४-१३।। हे कुरुनन्दन! तमोगुण के प्रवृद्ध होने पर अप्रकाश, अप्रवृत्ति, प्रमाद और मोह, ये सब वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं।
।।१४-१४।।जब यह जीव (देहभृत्) सत्त्वगुण की प्रवृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल लोकों को प्राप्त होता है।
।।१४-१५।। रजोगुण के प्रवृद्ध काल में मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मासक्ति वाले (मनुष्य) लोक में वह जन्म लेता है तथा तमोगुण के प्रवृद्धकाल में (मरण होने पर) मूढ़योनि में जन्म लेता है।
।।१४-१६।। (विवेकी पुरुषोंने) शुभ-कर्मका तो सात्त्विक निर्मल फल कहा है, राजस कर्मका फल दुःख कहा है और तामस कर्मका फल अज्ञान (मूढ़ता) कहा है।
।।१४-१७।। सत्त्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है। रजोगुण से लोभ तथा तमोगुण से प्रमाद, मोह और अज्ञान उत्पन्न होता है।
।।१४-१८।। सत्त्वगुणमें स्थित मनुष्य ऊर्ध्वलोकोंमें जाते हैं, रजोगुणमें स्थित मनुष्य मृत्युलोकमें जन्म लेते हैं और निन्दनीय तमोगुणकी वृत्तिमें स्थित मनुष्य अधोगतिमें जाते हैं।
।।१४-१९।। जब विवेकी (विचारकुशल) मनुष्य तीनों गुणों के अतिरिक्त किसी अन्य को कर्ता नहीं देखता और अपनेको गुणोंसे परे अनुभव करता है, तब वह मेरे स्वरूपको प्राप्त हो जाता है।
।।१४-२०।। देहधारी (विवेकी मनुष्य) देहको उत्पन्न करनेवाले इन तीनों गुणोंका अतिक्रमण करके जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्थारूप दुःखोंसे विमुक्त हुआ अमृतत्व का अनुभव करता है।
।।१४-२१।। अर्जुन ने कहा: हे प्रभो! इन तीनो गुणों से अतीत हुआ पुरुष किन लक्षणों से युक्त होता है? वह किस प्रकार के आचरण वाला होता है? और, वह किस उपाय से इन तीनों गुणों से अतीत होता है।
।।१४-२२।। भगवान ने कहा: हे पाण्डव! (ज्ञानी पुरुष) प्रकाश, कार्य प्रवृत्त तथा मोह – इन सभी या एक या दो से प्रवृत्त हुआ गुणातीत मनुष्य इनसे द्वेष नहीं करता, और इनसे निवृत्त हो जायँ तो इनकी इच्छा नहीं करता।
।।१४-२३।। जो उदासीन के समान स्थित रह कर गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और “गुण ही व्यवहार करते हैं” इस भाव मे अपने स्वरूपमें ही स्थित रहता है, और उस स्थिरता से विचलित नहीं होता।
।।१४-२४।। ।।१४-२५।। जो धीर मनुष्य सुख-दुःखमें सम तथा अपने स्वरूपमें स्थित रहता है; जो मिट्टीके ढेले, पत्थर और सोनेमें समदृष्टि रखता है; जो प्रिय-अप्रियमें तथा अपनी निन्दा-स्तुतिमें सम रहता है; तथा मित्र-शत्रुके पक्षमें सम रहता है; जो सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भका त्यागी है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है।
।।१४-२६।। जो मनुष्य अव्यभिचारी भक्तियोगके द्वारा मेरी सेवा अर्थात् उपासना करता है, वह इन गुणोंका अतिक्रमण करके ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जाता है।
।।१४-२७।। क्योंकि ब्रह्म, अविनाशी अमृत, शाश्वत धर्म और ऐकान्तिक सुखका आश्रय मैं ही हूँ।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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