श्रीमद भगवद गीता : ११

सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते।

ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ।।१४-११।।

 

 

जब इस मनुष्य शरीर में सब द्वारों – (इन्द्रियों और अन्तःकरण-) में प्रकाश (स्वच्छता) और ज्ञान (विवेक) उत्पन्न होता है, तब सत्त्वगुण को प्रवृद्ध हुआ जानो। ।।१४-११।।

 

भावार्थ:

जिस समय रजोगुणी और तमोगुणी वृत्तियोंको दबाकर सत्त्वगुण बढ़ता है, उस समय सम्पूर्ण इन्द्रियोंमें तथा अन्तःकरणमें स्वच्छता, निर्मलता प्रकट हो जाती है। जैसे सूर्यके प्रकाशमें सब वस्तुएँ साफ-साफ दीखती हैं, ऐसे ही स्वच्छ बहिःकरण और अन्तःकरणसे शब्दादि पाँचों विषयोंका यथार्थरूपसे ज्ञान होता है। मनसे किसी भी विषयका ठीक-ठीक मनन-चिन्तन होता है।

इन्द्रियों और अन्तःकरणमें स्वच्छता, निर्मलता होनेसे ‘सत् क्या है और असत् क्या है? कर्तव्य क्या है और अकर्तव्य क्या है? लाभ किसमें है ?और हानि किसमें है हित किसमें है और अहित किसमें है?’ आदि बातों का स्पष्टतया ज्ञान (विवेक) हो जाता है।

पुनः सत्वगुण के लक्षण सम्बन्ध मानने से है। परन्तु कियुकी सत्वगुण के विकार स्वच्छ एवं निर्मल है, इसलिये साधना के लिये यह विकार सहायक है और इनके त्याग नहीं करना चाहिये।

रजोगुण और तमोगुण के विकार, जिनका अगले दो श्लोकं में वर्णन हुआ है, उनका त्याग विवेक पूर्वक करना चाहिये।

 

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