श्रीमद भगवद गीता : १९

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।

गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ।।१४-१९।।

 

 

जब विवेकी (विचारकुशल) मनुष्य तीनों गुणों के अतिरिक्त किसी अन्य को कर्ता नहीं देखता और अपनेको गुणोंसे परे अनुभव करता है, तब वह मेरे स्वरूपको प्राप्त हो जाता है। ।।१४-१९।।

 

भावार्थ:

तीनो गुण मनुष्य (क्षेत्र) की मूल प्रकृति के कारण है, और उनके प्रभाव में शरीर में क्रिया होती है। जो पुरुष (चेतन तत्व) स्वयं को गुणों के प्रभाव से परे अनुभव करता है और स्वयं को कर्त्ता नहीं देखता, वह परमात्मतत्व (समता) को प्राप्त हो जाता है।

अतः मनुष्य, शरीर को ही अपना स्वरूप समझकर उससे तादात्म्य करके शरीर के विकारों को अपना विकार मानकर दुख, कष्ट और बन्धन का अनुभव करता हैं।

 

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