श्रीमद भगवद गीता : १३

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।

तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ।।१४-१३।।

 

 

हे कुरुनन्दन! तमोगुण के प्रवृद्ध होने पर अप्रकाश, अप्रवृत्ति, प्रमाद और मोह, ये सब वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं। ।।१४-१३।।

 

भावार्थ:

अप्रकाशः अप्रकाश का अर्थ बुद्धि की उस स्थिति से है, जिस में वह किसी भी निर्णय को लेने में स्वयं को असमर्थ पाती है। इस स्थिति को लैकिक भाषा में ऊँघना कहते हैं? अप्रकाश के प्रभाव से मनुष्य की बुद्धि को सत्-असत्, कर्तव्य-अकर्तव्य, हित-अहित का विवेक करना सर्वथा असंभव हो जाता है।

अप्रवृत्तिः अप्रवृत्ति सब प्रकार के उत्तरदायित्वों से बचने या भागने की प्रवृत्ति है। किसी भी कार्य को करने में स्वयं को अक्षम अनुभव करना तथा जगत् में किसी वस्तु को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न और उत्साह का न होना ये सब अप्रवृत्ति शब्द से सूचित किये गये हैं। निरर्थक बैठे अथवा पड़े रहना, आवश्यक कार्य को करने की भी रुचि का नहीं होना। यह सब अप्रवृत्ति वृत्ति का काम है।

प्रमादः मनुष्य की शक्ति का क्षीण हो जाना, भोजन और शयन करना- यह दो ही जीवन के प्रमुख कार्य होना, व्यर्थ के कार्यों में समय को व्यतीत करना। यह सब प्रमाद के कार्य है।

मोहः भीतर में विवेक विरोधी भाव पैदा होना, क्रिया के करने और न करने में विवेक का काम न करना, प्रत्युत मूढ़ता छायी रहना। किसी निर्दोष व्यक्ति को दोषी अथवा दोषी व्यक्तिको निर्दोष मान लेना। यह सब मोह के कार्य है।

तमोगुण की वृद्धि होने पर, अप्रकाश, अप्रवृत्ति, प्रमाद, मोह जैसी वृत्तियाँ उत्पन्न होती है। मनुष्य का अधिक निद्रा लेना, जीवन का समय निरर्थक नष्ट करना, जीवन में होने वाली संभावनाओं का विपरीत अर्थ लगाना, व्यावहारिक सम्बन्धों को निश्चित करनें में भी सदैव त्रुटि करना तमोगुण के लक्षण है।

 

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