भावार्थ:
जिस ज्ञान का वर्णन अध्याय १३ में हुआ है और अब इस अध्याय में होगा, उसका आश्रय लेकर साधक मेरी (श्री कृष्ण मनुष्य रूप) सधर्मताको प्राप्त हो जाते हैं। अर्थात् जैसे मेरे में कर्तृत्वभोक्तृत्व नहीं है, ऐसे ही साधक में भी कर्तृत्वभोक्तृत्व नहीं रहता। जैसे मैं सदा ही निर्लिप्त-निर्विकार रहता हूँ, ऐसे ही साधक को भी अपनी निर्लिप्तता-निर्विकारता का अनुभव हो जाता है।
महासर्ग में भी उत्पन्न न होने और महाप्रलयमें भी व्यथित न होनेका तात्पर्य यह है कि ज्ञानी महापुरुषका प्रकृति और प्रकृतिजन्य गुणों से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। इसलिये प्रकृति का सम्बन्ध रहने से जो जन्ममरण होता है, दुःख होता है, हलचल होती है, प्रकृतिके सम्बन्ध से रहित महापुरुष में वह जन्ममरण, दुःख आदि नहीं होते।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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