श्रीमद भगवद गीता : ०२

इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।

सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ।।१४-२।।

 

 

इस ज्ञानका आश्रय लेकर जो मनुष्य मेरी सधर्मता को प्राप्त हो गये हैं, वे महासर्गमें भी पैदा नहीं होते और महाप्रलय में भी व्यथित नहीं होते। ।।१४-२।।

 

भावार्थ:

जिस ज्ञान का वर्णन अध्याय १३ में हुआ है और अब इस अध्याय में होगा, उसका आश्रय लेकर साधक मेरी (श्री कृष्ण मनुष्य रूप) सधर्मताको प्राप्त हो जाते हैं। अर्थात् जैसे मेरे में कर्तृत्वभोक्तृत्व नहीं है, ऐसे ही साधक में भी कर्तृत्वभोक्तृत्व नहीं रहता। जैसे मैं सदा ही निर्लिप्त-निर्विकार रहता हूँ, ऐसे ही साधक को भी अपनी निर्लिप्तता-निर्विकारता का अनुभव हो जाता है।

महासर्ग में भी उत्पन्न न होने और महाप्रलयमें भी व्यथित न होनेका तात्पर्य यह है कि ज्ञानी महापुरुषका प्रकृति और प्रकृतिजन्य गुणों से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। इसलिये प्रकृति का सम्बन्ध रहने से जो जन्ममरण होता है, दुःख होता है, हलचल होती है, प्रकृतिके सम्बन्ध से रहित महापुरुष में वह जन्ममरण, दुःख आदि नहीं होते।

 

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