श्रीमद भगवद गीता : २३

उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।

गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ।।१४-२३।।

 

 

जो उदासीन के समान स्थित रह कर गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और “गुण ही व्यवहार करते हैं” इस भाव मे अपने स्वरूपमें ही स्थित रहता है, और उस स्थिरता से विचलित नहीं होता। ।।१४-२३।।

 

भावार्थ:

 

जिस प्रकार उदासीन व्यक्ति अपने आस-पास होने वाली घटनाओं से विचलित नहीं होता, स्थिर रहता है। उसी प्रकार गुणातीत योग स्थित साधक गुणों के प्रभाव में स्वयं के अन्तःकरण मे उत्पन्न होने वाली वृत्तियों से प्रभावित अथवा विचलित नहीं होता।  उसको यह अनुभव रहता है कि उत्पन्न होने वाली वृत्तियों का कारण त्रिगुण है और वह स्थिर रहता है।

यहाँ उदासीन व्यक्ति से तुलना करने का अर्थ यह नहीं है की गुणातीत कोई कार्य नहीं करता। इसके विपरीत वह प्राप्त कर्तव्यों को बड़ी तत्प्रता से करता है, परन्तु स्वयं के अंदर विकार रूपी भावना की उत्पति को स्थान नहीं देता।

 

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