श्रीमद भगवद गीता : २४-२५

समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।

तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ।।१४-२४।।

मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।

सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ।।१४-२५।।

 

 

जो धीर मनुष्य सुख-दुःखमें सम तथा अपने स्वरूपमें स्थित रहता है; जो मिट्टीके ढेले, पत्थर और सोनेमें समदृष्टि रखता है; जो प्रिय-अप्रियमें तथा अपनी निन्दा-स्तुतिमें सम रहता है; तथा मित्र-शत्रुके पक्षमें सम रहता है; जो सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भका त्यागी है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है। ।।१४-२४।। ।।१४-२५।।

 

भावार्थ:

क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, गुण और शरीर का जो ज्ञान है, उस ज्ञान को प्राप्त करके, योग मे स्थित हुआ साधक धैर्यवान् कहलाता है। कारण की धैर्यवान् सुख-दुःख में सम भाव रखता है, उनसे विचलित नहीं होता।

इन्द्रियों के विषयों में राग-द्वेष, कामना करने से, परिस्थिति-पदार्थ में मनुष्य अनुकूलता-प्रतिकूलता कर लेता है, जिससे सुख-दुःख का भाव उत्पन्न होता है। उसकी अपनी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं. राग-द्वेष, कामना न रहने पर सुख-दुःख नहीं रहता। शरीर निर्वाहा के लिये और शरीर की पीड़ा को लेकर मनुष्य को जो सुख-दुःख है, वह शरीर से सम्बन्ध के कारण है। सम्बन्ध न रहने पर सुख-दुःख नहीं होता।

प्राकृतिक पदार्थ – लोष्ट (मिट्टी)? अश्म (पाषाण) और काञ्चन (स्वर्ण) को उनकी सांसारिक उपयोगिता के अनुसार उपयोग करता है, परन्तु उनमें राग-द्वेष, संग्रह रूपी विकार नहीं रखता। उनकी प्राप्ति-अप्राप्ति में उसको हर्षशोक नहीं होता।

पदार्थ के समान ही गुणातीत, प्राणी में भी सम भाव रखता है। उनमें प्रिय-अप्रिय का भाव नहीं करता। व्यवहार काल में उनकी कार्य करने की क्षमता-गुणवत्ता के अनुसार उनसे कार्य व्यवहार करता।

मान और अपमान होने में अहंकार की मुख्यता होती है। गुणातीत में अहंता न होने से उसमें आदर-निरादर का प्रभाव नहीं होता। वह  सम भाव रहता है।

 

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