श्रीमद भगवद गीता : २७

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाऽहममृतस्याव्ययस्य च।

शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ।।१४-२७।।

 

क्योंकि ब्रह्म, अविनाशी अमृत, शाश्वत धर्म और ऐकान्तिक सुखका आश्रय मैं ही हूँ। ।।१४-२७।।

 

भावार्थ:

दृश्यमान ब्रह्म जगत को धारण करने वाला परमात्मतत्व है।

सर्वत्र समान रूप से व्याप्त अमृत (अविनाशी), अव्यय, नित्य, रूप से जो विध्यमान है, वह परमात्मतत्व है।

सनातन धर्म (सिद्धांत) से सृष्टि चक्र का कार्यान्वित होने का आधार परमात्मतत्व है।

मनुष्य जिस ऐकान्तिक सुख को प्राप्त करने के लिये ललाइत रहता है, उसका आधार भी परमात्मतत्व है।

 

PREVIOUS                                                                                                                                          NEXT

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]

Read More

अध्याय