श्रीमद भगवद गीता : ०५

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः।

निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ।।१४-५।।

 

हे महाबाहो! प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले सत्त्व, रज और तम – ये तीनों गुण अविनाशी देहीको देहमें बाँध देते हैं। ।।१४-५।।

 

भावार्थ:

तीसरे और चौथे श्लोकमें जिस मूल प्रकृतिको महद् ब्रह्म नामसे कहा है? उसी मूल प्रकृतिसे सत्त्व? रज और तम – ये तीनों गुण पैदा होते हैं। यहाँ इति पदका तात्पर्य है कि इन तीनों गुणोंसे अनन्त सृष्टियाँ पैदा होती हैं तथा तीनों गुणोंके तारतम्यसे प्राणियोंके अनेक भेद हो जाते हैं।

ये गुण वे तीन विभिन्न प्रकार के भाव हैं जिनके वशीभूत् होकर मन, निरन्तर परिवर्तनशील परिस्थितियों में विविध प्रकार से अपनी प्रतिक्रियारूपी क्रीड़ा करता रहता है। जिसके कारण वह जीव भाव को प्राप्त होकर संसार के दुखों में बंध जाता है। अर्थात ये गुण विभिन्न प्रकार के भाव हैं, जिनके कारण भिन्नभिन्न व्यक्तियों का व्यवहार भिन्नभिन्न प्रकार का होता है।

 

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