श्रीमद भगवद गीता : ०६

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।

सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ।।१४-६।।

 

 

हे पापरहित अर्जुन! उन गुणोंमें सत्त्वगुण निर्मल (स्वच्छ) होनेके कारण प्रकाशक और निर्विकार है। वह सुख और ज्ञानकी आसक्तिसे (देहीको) बाँधता है। ।।१४-६।।

 

भावार्थ:

पूर्व श्लोक में तीन गुणों का जो वर्णन हुआ है, उसमे से सत्व गुण के विषय में इस श्लोक में बतया गया है।

जब अन्तःकरण में उत्पन्न विकार का अभाव होता है, तब एक सुख-शान्ति की अनुभूति होती है। उस समय मनुष्य के मन में यह विचार आता है कि इस प्रकार की अनुभूति (सुख-शान्ति) निरन्तर बनी रहे। निरन्तर सुख की अनुभूति बने रहने का भाव ही सुख में आसक्ति है।

विषयों में सुख की कल्पना रजोगुण का लक्षण है। विषयों में सुख की कल्पना,से विषय को प्राप्त करने के लिये कामना रूपी वृति अन्तःकरण में उत्पन्न होती है। प्रयत्नों के फलस्वरूप जब उस विषय की प्राप्ति होती है, तब क्षणभर के लिये कामना रूपी वृति की शान्ति हो जाती है और सुख की अनुभूति होती है।

पारमार्थिक ज्ञान न होने के कारण मनुष्य यही समझता है कि वह सुख उसे विषय से प्राप्त हुआ है। विषयों में सुख की कल्पना, कल्पना से प्राप्त करने की कामना,और कामना पूर्ति के लिये प्रयत्न, इस प्रकार यह चक्र बन जाता है और मनुष्य इस चक्र मे बंधा रहता है।

सुख में आसक्ति के कारण, और जब यह लगता है कि सुख विषय से है, तब मनुष्य उस विषय में आसक्ति कर लेता है और उसका भोग करने लगता है।

बुद्धि के कार्य में सत्वगुण कारण है। बुद्धि ही पारमार्थिक अथवा लौकिक विषय को समझने का कार्य करती है। इसके द्वारा मनुष्य को विषयों का ज्ञान होता है। सत्त्वगुण की अधिकता होने से बुद्धि उत्साह पूर्वक विषय को अच्छी तरह समझने का कार्य करती है। यही कारण है कि इस गुण के न्यूनता-अधिकता के कारण ही सभी व्यक्तियों की बौद्धिक क्षमता एक समान नहीं होती। सत्त्वगुण की वृद्धि में ही मनुष्य सांसारिक विषयों जो जान कर नय-नय आविष्कार करता है।

इस प्रकार, बुद्धि के इस प्रकाश से प्रकाशित होकर विषय के ज्ञान की वृत्ति अन्तकरण में उदित होती है। मनुष्य इसी वृत्ति के साथ तादात्म्य करके अभिमानपूर्वक कहता है, – “मैं इस वस्तु का ज्ञाता हूँ”। यही अहंता का भाव ही ज्ञान में आसक्ति है। जीवन निर्वाहा के लिये मनुष्य सर्वप्रथम भौतिक विषयों को जानने का कार्य करता है और उसमें ही आसक्त होकर रह जाता है। उसका ध्यान पारमार्थिक विषयों की ओर जाता ही नहीं।

बुद्धि जब पारमार्थिक विषयों का ज्ञान अर्जित करने के लिये प्रेरित होती है तब उसको अन्तःकरण की वृत्तियाँ साफ-साफ दीखती हैं, उनका ज्ञान होता है। वृतियों का ज्ञान होने से, और उनका त्याग करने पर परमात्मतत्त्व को प्राप्त करने में सहायता होती है। इसलिये सत्वगुण को प्रकाशक कहा गया है। सत्त्वगुण प्रधान बुद्धि से ही परमात्मतत्त्व की प्राप्ति होने के कारण सत्त्वगुण को निर्मल (मलरहित) एवं निर्विकार कहा गया है।

 

PREVIOUS                                                                                                                                          NEXT

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]

Read More

अध्याय