श्रीमद भगवद गीता : ०७

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।

तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ।।१४-७।।

 

 

हे कुन्तीनन्दन! तृष्णा और आसक्तिको पैदा करनेवाले रजोगुणको तुम रागस्वरूप समझो। वह कर्मोंकी आसक्तिसे शरीरधारीको बाँधता है। ।।१४-७।।

 

भावार्थ:

जिस प्रकार बुद्धी का प्रकाशक सत्त्वगुण है, उसी प्रकार कर्मेन्द्रियों का प्रकाशक रजोगुण है। कर्मेन्द्रियों कार्य में रजोगुण कारण है। रजोगुण की अधिकता के कारण कर्मेन्द्रियों अधिक उत्साह से कार्य करती है और मनुष्य में सहास एवं निर्भीकता का भाव होता है।

इन्द्रियों के विषयों में प्रीति का अनुभव करना और यह कल्पना करना की विषयों में सुख है, यह कार्य रजोगुण का है।

विषयों में प्रीति, सुख की कल्पना और कर्मेन्द्रियों के कार्य रत होने से विषय को प्राप्त करने की कामना उत्पन्न होती है। प्राप्त विषय में सुख लेना भोग होता है। विषय में सुख निरन्तर प्राप्त होता रहे, इसके लिये मनुष्य संग्रह करता है। भोग और संग्रह में लिप्त मनुष्य में उत्पन्न होने वाली कामना तृष्णा मे परिवर्तित हो जाती है। तृष्णा होने पर मनुष्य कैसी भी परिस्थिति हो, उचित-अनुचित, धर्म से अथवा अधर्म से उस विषय को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है।

अध्याय ३ श्लोक ३७ मे रजोगुण का कार्य – राग (कामना) के लिये, महाशना, और महापापी पद कहे है। यह क्रोध उत्पन्न करने वाला और मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है।

अध्याय ३ श्लोक ३८ से अध्याय ३ श्लोक ४० में कामना के दुष्परिणाम का विस्तार से वर्णन हुआ है। अध्याय ३ श्लोक ४१ से अध्याय ३ श्लोक ४३ तक में इस कामना का किस प्रकार दमन करना है,  इसका वर्णन हुआ है।

 

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