श्रीमद भगवद गीता : ०९

सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत।

ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ।।१४-९।।

 

 

हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! सत्त्वगुण सुख में और रजोगुण कर्ममें लगाकर मनुष्यपर विजय करता है तथा तमोगुण ज्ञानको ढककर एवं प्रमाद में भी लगाकर मनुष्य पर विजंय करता है। ।।१४-९।।

 

भावार्थ:

प्रस्तुत श्लोक पूर्व के तीन श्लोकों का सारांश है।

सत्त्वगुण साधकको सुखमें लगाकर अपनी विजय करता है, साधकको अपने वशमें करता है। रजोगुण मनुष्यको कर्ममें लगाकर अपनी विजय करता है। तात्पर्य है कि मनुष्यको क्रिया करना अच्छा लगता है, प्रिय लगता है। जब तमोगुण आता है, तब वह सत्-असत्, कर्तव्य-अकर्तव्य, हित-अहितके ज्ञान-(विवेक-) को ढक देता है, आच्छादित कर देता है अर्थात् उस ज्ञानको जाग्रत् नहीं होने देता। ज्ञानको ढककर वह मनुष्यको प्रमादमें लगा देता है अर्थात् कर्तव्य-कर्मोंको करने नहीं देता और न,करने योग्य कर्मों में लगा देता है। यही उसका विजयी होना है।

सत्त्व, रज और तम – ये तीनों गुण शरीर के है, पुरुष (चेतन तत्व) के नहीं है। पुरुष जब शरीर और शरीर से होने वाली क्रिया से सम्बन्ध मान लेता है तब, स्पृहा, भोग, कामना, तृष्णा, प्रमाद, आलस्य आदि विकार उत्पन्न होते है। शरीर से सम्बन्ध और तीनों गुण से उत्पन्न यह विकार मनुष्य को विषमताओं में बाँधने वाले होते है।

सम्बन्ध न मान से यह विकार नहीं रहते और विवेक पूर्वक इन विकारों का त्याग करने से माना हुआ सम्बन्ध जाता रहता है। और मनुष्य विषमताओं से मुक्त हो जाता है, अर्थात गुणातीत हो जाता है।

 

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