श्रीमद भगवद गीता : अध्याय ६

संन्यास, योग, और ध्यान योग का विषय जो अध्याय ५ में आरम्भ हुआ था, उसी को ओर विस्तार से भगवान श्रीकृष्ण अध्याय ६ में कहते है। इस अध्याय के श्लोक ३७ और श्लोक ३८ में अर्जुन बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न करते है। गीता का अध्यन करने वाले मनुष्य को इन प्रश्नों और इसके उत्तर को विशेषता से समझना चाहिये।

मनुष्य की यह विचित्र मनोस्थिति होती है कि जीवित अवस्था से अधिक, उसको मृत्यु के बाद उसका क्या होगा, इसकी चिंता रहती है। प्राप्त जीवन का इस जीवन काल में सदुपयोग किस प्रकार हो, कल्याण किस प्रकार हो, इसका विचार नहीं होता। परन्तु मृत्यु के बाद क्या होगा इस की विचार अधिक होता है।

साथ ही मनुष्य को सुख-दुःख के चक्र में एक विशेष प्रकार का आनन्द आता है। अन्तःकरण में जब सुख-दुःख (विषमता) का भाव नहीं रहता, और समता रहती है, तब वह समता खाली पन के रूप में मनुष्य को व्यथित करती है।

इसी भय के कारण अर्जुन यह दो प्रश्न करते है। अन्य मनुष्यों के सामान अर्जुन को भी भय होता है कि सांसारिक सुख-दुःख का त्याग कर दिया और ब्रह्म की प्राप्ति नहीं हुई तो मनुष्य संसार के सुख से भी गया और परम सुख भी नहीं मिला।

श्लोक ०१ से श्लोक ०२ - संन्यास क्या है, योग क्या है और संन्यास एवं योग में समानता

श्लोक १० से श्लोक १७ - एकांत समय में मन से केवल परमात्मा का चिन्तन हो उसके लिये ध्यान योग का वर्णन

श्लोक ३७ से श्लोक ४७ - योग भ्रष्ट साधक की मृत्यु उपरान्त की गति

।।६-३७।। अर्जुन – योगसिद्धि न होने पर अन्त समय में मनुष्य की क्या गति होती है?
।।६-३८।। अर्जुन – संसार के आश्रय से रहित और ब्रह्मप्राप्ति न होने पर मनुष्य की स्थिति क्या होती है?
।।६-३९।। योग युक्त व्यवहार करता है और उसमें समदर्शी रहता है।
।।६-४०।। कल्याण कारी कार्य करने वाले योग आरूढ़ साधक की सद्गति निश्चित है।
।।६-४१।। आश्रय रहित साधक के पुण्य शाश्वत होते है और वह पुनः श्रीमन्त के घर में जन्म लेता है।
।।६-४२।। योग आरूढ़ साधक अति दुर्लभ ज्ञानवान् योगियों के कुल में जन्म लेता है।
।।६-४३।। साधना के लिये पूर्वजन्मकृत साधन-सम्पत्ति पुनः जन्म में अनायास ही प्राप्त हो जाती है।
।।६-४४।। पूर्व जन्म का अभ्यास पुनः जन्म में योग के लिये परवश करता है।
।।६-४५।। योग भ्रष्ट योगी एक या उससे अधिक जन्म में निश्चित ही परमगति को प्राप्त होता है।
।।६-४६।। सकाम भाव वाले तपस्वी, ज्ञानी, कर्मकाण्डी, से योगी श्रेष्ठ है।
।।६-४७।। श्रद्धावान्, एकत्त्व भाव से युक्त, मनुष्य धर्म का पालन करने वाला योग युक्त है।  

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