श्रीमद भगवद गीता : १२

निरन्तर अभ्यास करने से मन एकाग्र होने लगता है।

तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।

उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये।।६-१२।। 

 

 

उस आसनपर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि के लिये योग का अभ्यास करे। ।।६-१२।।

 

भावार्थ:

उस बिछाये हुए आसनपर सहज भाव से स्थिर अवस्था में बैठ, जाना चाहिये। इन्द्रियों में हो रही क्रियाओं को विश्राम दे अथवा उनके प्रति उदासीन होने का प्रयत्न करे और मनको एकाग्र कर परमात्मा में लगाये। अध्याय ५ श्लोक २७ में मनको एकाग्र किस प्रकार करे इसका वर्णन किया है।

परमात्मा का चिन्तन करते हुए मन में संसार की कोई बात याद आ जाय तो उसको पकड़ें नहीं अर्थात् न तो उसका अनुमोदन करें और न उसका विरोध ही करें। दृष्टा भाव रखते हुए उन विचारो के प्रति उदासीन हो जाय। ऐसा करने से  मन तत्काल और सहज ही पुनः एकाग्र हो जाता है।

जिस प्रकार संसार में हो रहे बहुत-से कार्यों के साथ जब तक हमारा सम्बन्ध नहीं जुड़ता तबतक उन कार्यों का हमारेपर कोई प्रभाव नहीं रहता। ऐसे ही अपने-आप आने वाले विचार के साथ अगर हम सम्बन्ध नहीं जोड़ेंगे, तो उस विचार से हमारा मन नहीं चिपकेगा। जब मन नहीं चिपकेगा तो वह स्वतः एकाग्र, शान्त हो जायगा।

ध्यानयोग का अभ्यास करते हुई जब पुनः-पुनः संसारिक विचार आते है तो साधक को भय होता है उससे यह योग नहीं होगा और साधक अभ्यास को छोड़ देता है। परन्तु प्रतिदिन दृढ़ता पूर्वक यत्न करने से मन एकाग्र होने लगता है और चित्त शुद्ध हो जाता है।

इस प्रकार ध्यानयोगका अभ्यास करना अन्तःकरणकी शुद्धि में सहायक है। मन का विक्षेप ही अन्तःकरण की अशुद्धि कहलाती है।

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