श्रीमद भगवद गीता : १४

प्रशान्त साधक निर्भय होकर परमात्मा को परम लक्ष्य मानकर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करे।

 

प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।

मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः।।६-१४।।

 

(साधक को) प्रशान्त अन्त:करण, निर्भय और ब्रह्मचर्य ब्रत में स्थित होकर, मन को संयमित करके चित्त को मुझमें लगाकर मुझे ही परम लक्ष्य समझकर बैठना चाहिए। ।।६-१४।।

भावार्थ:

ध्यानयोग का अभ्यास करने से राग-द्वेष शिथिल होकर मिट जाते हैं और अन्तःकरण में स्वतः शान्ति आ जाती है। इस शांति को ही ‘प्रशान्तात्मा’ पद से कहा गया है। अन्तःकरण की उस परम् शान्ति के लिये साधक को ध्यानयोग का अभ्यास करना चाहिये।

शान्ति और सन्तोष का अनुभव साधक को विस्मित करता है, कारण कि इस प्रकार का अनुभव उसको पहले कभी नहीं हुआ होता है। अब तक जो साधक संसारिक सुख का अनुभव करता रहा है, उसको इस प्रकार की शान्ति प्राप्त होने से विश्वास ही नहीं होता कि संसारिक पदार्थों के बिना भी आनन्द की प्राप्ति हो सकती है।

संसारिक सुखों-दुखों का मनुष्य इस प्रकार अभ्यस्त होता है, की जब उसको संसारिक पदार्थों के बिना ही आन्तरिक शान्ति की अनुभूति होती है तो वह विचित्र प्रकार से भयभीत हो जाता हैं। उसको यह शान्ति संसारिक सुख के समान क्षणिक और अनित्य अनुभव होती है। उसको भय होता है कि अगर वह संसारिक सुख को प्राप्त करने के किये कार्य नहीं करेगा तो उसके जीवन में संसारिक पदार्थों का आभाव हो जायगा। इस भय के कारण साधक ध्यानयोग की उपेक्षा कर देता है। आन्तरिक शांति और सन्तोष प्राप्त होने पर भय वश साधक पुनः संसारिक भोग की तरफ भागता है।

अतः इसका निषेध करते हुये भगवान श्रीकृष्ण साधक को निर्भय होकर, परमत्मा को जीवन का परम लक्ष्य मान कर, केवल परमात्मा का चिन्तन करने को कहते है।

साथ ही भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि साधक निर्भयता से ब्रह्मचारी के व्रत का पालन करना चाहिये। अर्थात पुनः संसारिक विषयों का चिन्तन और सेवन नहीं करना चाहिये।

यहाँ ‘ब्रह्मचारिव्रत’ का तात्पर्य केवल वीर्य रक्षा से नहीं है, प्रत्युत संसारिक विषयों का चिन्तन और सेवन न करने से है।

ध्यानयोग का अभ्यास का त्याग न करे और मनको संयत करके, चित्तको संसारकी तरफ से सर्वथा हटाकर केवल परमात्मा में ही लगाये और संसारिक विचारों से उपरीति रखे।

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