श्रीमद भगवद गीता : १६

शरीर को स्वस्थ रखने का कर्तव्य, मनुष्य के स्वयं का है।

 

 

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।

न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।।६-१६।।

परन्तु, हे अर्जुन! यह योग उस पुरुष के लिए सम्भव नहीं होता, जो अधिक खाने वाला है या बिल्कुल न खाने वाला है तथा जो अधिक सोने वाला है या सदा जागने वाला है- जो स्वस्थ न हो । ।।६-१६।।

 

भावार्थ:

मनुष्य को जीवन निर्वाह के लिये उतना ही ग्रहण करना चाहिये जितना पर्याप्त हो। मनुष्य को शरीर से सम्बन्ध नहीं रखना है, परन्तु उसको स्वस्थ रखने का कर्तव्य मनुष्य, स्वयं का है। कारण की यह शरीर परमात्मा का दिया है। और यह शरीर समाज के कल्याण के लिये प्राप्त हुआ है न की स्वयं के भोग के लिये।

मनुष्य जब शरीर को स्वस्थ रखता है और जीवन निर्वाह के लिये पर्याप्त मात्रा में ग्रहण करता है, तभी उसका योग सिद्ध हो सकता है, अन्यथा नहीं।

मनुष्य को जब कर्तव्य प्राप्त होते है, तब उसको शरीर का सुख अथवा कष्ट नहीं देखना चाहिये। उस कर्तव्य को तत्पर्ता से बिना किसी आसक्ति से करना चाहिये।

मनुष्य को चाहे कर्तव्य हो, चाहे जीवन निर्वाह के कार्य हो, अथवा ध्यान योग साधना हो,- शरीर स्वस्थ रहने पर ही यह सब कार्य पूर्ण हो सकते है। अन्यथा नहीं।

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