श्रीमद भगवद गीता : १७

जीवन निर्वाह के कार्य यथायोग्य मात्रा में करने से ही योग की सिद्धि है।

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।६-१७।। 

 

दुःखोंका नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार और विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का तथा यथायोग्य सोने और जागने वाले का ही सिद्ध होता है। ।।६-१७।।

 

भावार्थ:

‘दुःखहा’ – यह पद पुनः स्मरण करता है की प्राकृतिक पदार्थ की, कामना, सम्बन्ध और भोग ही सभी दुःखो का कारण है जिसका नाश योग के द्वारा ही हो सकता है। और योग सिद्धि में सब कुछ नियमित प्रकार से हो और समता का भाव हो।

इस श्लोक से पुनः स्पष्ट होता है कि भगवान श्रीकृष्ण प्राकृतिक पदार्थ से सन्यास लेने के लिये नहीं कहते है। जीवन निर्वाह के आवश्यक पदार्थ को ग्रहण करना योग सिद्धि के लिये अनिवार्य है। जो प्राप्त कर्तव्यों को यथोचित चेष्टा से करता है उसका ही योग सिद्ध होता है।

शरीर का निर्वाह और आचरण नियमित प्रकार से होना चाहिये। अथार्त आहार, विहार, सोना और जागना उतनी ही मात्रा में हो जितना स्वास्थ्य और जीवन निर्वाह के लिये उपयुक्त और आवश्यक हो।

अपने वर्ण-आश्रमके अनुकूल जैसा देश, काल, परिस्थिति के अनुसार जो शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म सामने आ जाय; उसको बड़ी तत्प्रता से और प्रसन्नतापूर्वक किया जाय – ‘युक्तचेष्टस्य कर्मसु’ का अर्थ है।

नियमित आहार को ग्रहण करने से यह भाव भी प्रकट होता है कि मनुष्य को आहार के लिये जीविका-सम्बन्धी कार्य करने है, वह भी नियमित होने चाहिये। जीविका-सम्बन्धी कार्य, भोग सम्बन्धी कार्य में परिवर्तित नहीं हो जाने चाहिये।

निंद्रा भी नियमित होनी चाहिये और निंद्रा के लिये साधन सामग्री भी नियमित भाव से होनी चाहिये। विहार भी नियमित होना चाहिये और विहार के लिये साधन सामग्री भी नियमित भाव से होनी चाहिये। साधन सामग्री का संग्रह नहीं होना चाहिये।

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