श्रीमद भगवद गीता : ०२

योग में जिस का त्याग है, वह ही संन्यास है।

 

यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।

न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ।।६.२।।

 

हे पाण्डव! योग में जिस (राग) का त्याग है, उसी को तुम संन्यास समझो; क्योंकि सन्यास का संकल्प किये बिना कोई मनुष्य योगी नहीं हो सकता। ।।६-२।।

भावार्थ:

अध्याय ५ श्लोक ३ में राग-द्वेष के त्याग को सन्यास कहा गया है।

योग का अर्थ है, राग-द्वेष का त्याग, कर्मों में आसक्ति का त्याग, ममता-अहंता का त्याग, प्रकृति पदार्थों के भोगों का त्याग। अतः भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट करते है कि योग में जिस विकार-विषमता का त्याग है, वह त्याग ही सन्यास है।

प्राय मनुष्य सन्यास का अर्थ प्रकृति पदार्थों के त्याग और कर्मों के त्याग को मान लेता है। अतः इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते है मनुष्य ‘सन्यास’ शब्द से जिस त्याग को समझता है वह त्याग वास्तव में योग सिद्धि के लिये किये जाने वाला विकार-विषमता का त्याग है।

भगवान श्रीकृष्ण सन्यास की स्पष्टता के साथ संकल्प की स्पष्टता भी करते है।

भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि मनुष्य को योग में स्थित होने के लिये विकार-विषमता से सन्यास लेने के लिये संकल्प करना चाहिये। कारण की जब तक मनुष्य विकार-विषमता से सन्यास लेने का संकल्प नहीं लेता तब तक वह योग में स्थित नहीं हो सकता। किसी भी कार्य को करने के लिये मनुष्य सर्व प्रथम उस कार्य को करने का संकल्प लेना अनिवार्य है।

इस के विपरीत मनुष्य के मन में जब स्फुरणाएँ होती हैं अर्थात तरह-तरह के विचार आते हैं। तब उनमें से किसी एक स्फुरणा के प्रति मन में प्रियता-अप्रियता पैदा हो जाती हैं। मनुष्य उस प्रियता-अप्रियता के वश हो कर, कार्य को करने अथवा न करने का संकल्प ले लेता है, जो की निषेध है। अतः यहाँ, योग सिद्धि के लिये प्रियता-अप्रियता के कारण वश, कार्य को करने अथवा न करने का संकल्प नहीं लेना चाहिये। समाज हित के लिये वह कार्य निश्चित रूप से करना चाहिये।  (अध्याय ४ श्लोक १९)

अर्थात मनुष्य को विकार-विषमता से सन्यास लेने का संकल्प करना चाहिये। मनुष्य को संसारिक कार्य समाज हित के लिये निश्चित रूप से करने चाहिये। और मनुष्य को किसी भी कार्य को करने का संकल्प लेने का कारण कामना पूर्ति नहीं होना चाहिये।

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