श्रीमद भगवद गीता : २०

योग का अभ्यास करने से चित्त उपराम और स्वयं में सन्तुष्ट हो जाता है।

 

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।

यत्र चैवात्मनाऽऽत्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति।।६-२०।।

 

योग का अभ्यास करने से जिस अवस्थामें निरुद्ध चित्त उपराम हो जाता है, उस अवस्था में योगी स्वयं अपने-आप से अपने-आप को देखता हुआ अपने-आपमें  ही सन्तुष्ट हो जाता है। ।।६-२०।।

 

भावार्थ:

योग में स्थित योगी की स्थिति क्या होती है उसका वर्णन अगले दो श्लोकों में हुआ है।

योग का अभ्यास करने से अर्थ है –

  1. साधक सभी कार्य समाज कल्याण, समाज की सेवा के लिये करता है।
  2. साधक स्वयं को सभी संसारिक पदार्थों से निःस्पृह रखता है, और कामनाओं का त्याग करता है।
  3. साधक जानता है की उसके माने हुये शरीर के द्वारा होने वाले सभी कार्य का कारण वह स्वयं नहीं है, अपितु परमात्मा है।
  4. साधक चित (मन) में चिन्तन केवल परमात्मा का करता है।
  5. साधक शरीर और संसारिक पदार्थों पर आश्रित नहीं रहता। शरीर निर्वाह के लिये जो मिल, जितना मिल, उससे सन्तुष्ट रहता है।

योग का अभ्यास करने से, जिस अवस्था में मन में संसारिक विषयों के प्रति आसक्ति नहीं रहती और उनका चिन्तन भी नहीं होता, तब वह अन्तःकरण की उपराम अवस्था है। उपराम अवस्था में एक विशेष प्रकार की शान्ति की अनुभूति होती है। अर्थात चित में किसी भी प्रकार की वृत्तियाँ उत्तपन्न नहीं होती।

इस अवस्था में योगी का संसारिक पदार्थों और शरीर पर आश्रय समाप्त हो जाता है। इन्द्रियों के विषय के प्रति राग-द्वेष समाप्त होने से अनुभव करने को कुछ नहीं रहता। अनुभव केवल शान्त चित का होता है। राग-द्वेष न रहने से, विषयों में स्पृहा न होने से, अन्तःकरण में किसी प्रकार के आभाव की अनुभूति नहीं होती, इसलिये योगी सन्तुष्ट रहता है।

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