श्रीमद भगवद गीता : २३

दुःखों के संयोग का वियोग ही योग है- अविचलित हुए निश्चयपूर्वक योगका अभ्यास करे।

 

तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।

स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।।६-२३।।

 

जिसमें दुःखों के संयोग का ही वियोग है, उसीको ‘योग’ नामसे जानना चाहिये। योग जिस का लक्ष्य है, उसको योगका अभ्यास न विचलित हुए चित्तसे निश्चयपूर्वक करना चाहिये। ।।६-२३।।

 

भावार्थ:

मनुष्य को दुःखों का संयोग होता है प्रकृति पदार्थों के प्रति राग, आसक्ति, ममता, अहंता होने से। इन सब का होना ही दुःखों का कारण है। प्रकृति पदार्थों, स्वयं में दुःख नहीं देते, इनसे सम्बन्ध होने से ही दुःख का अनुभव होता है। प्रकृति पदार्थों से सम्बन्ध का वियोग करना ही ‘योग’ है।

अध्याय २ श्लोक ४८ में समता ही योग है – इस प्रकार कहा है। समता को प्राप्ति भी प्रकृति पदार्थों से सम्बन्ध का त्याग करने से होती है।

मनुष्य के जीवन का लक्ष्य योग में स्थित होने का होना चाहिये। जो साधक योग को अपना लक्ष्य मान लेता है उसको योग साधना के लिये निश्चित बुद्धि के साथ बिना उकताये प्रयत्न करते रहना चाहिये, चाहे कितना भी समय लग जाय। अध्याय २ श्लोक ४१ में भी समता के लिये निश्चित बुद्धि करने को कहा है।

इस श्लोक से सपष्ट हो जाता है कि निश्चित बुद्धि करके निरन्तर अभ्यास करने से साधक निश्चित रूप से योग में स्थित हो जाता है।

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