श्रीमद भगवद गीता : २४

सम्बन्ध-विच्छेद संसार के सम्बन्ध से करे जो कामना और उसकी उत्त्पति का कारण है।

 

सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।

मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ।।६-२४।।

 

कामना-ओं का पूर्णतया त्याग करने के लिए, सर्वप्रथम दृढ़ संकल्प करे, तत्प्रश्चात कामनाओं से उत्पन्न संकल्पों का त्याग करे और संसार के चिन्तन से उत्त्पन्न होने वाली स्फुरणाओं का निषेध करने के लिये इन्द्रियों के विषय से सम्बन्ध का त्याग करे। ।।६-२४।।

 

भावार्थ:

जिस आत्यन्तिक सुख की प्राप्ति का वर्णन अध्याय ६ श्लोक २१ एवं अध्याय ६ श्लोक २२ में हुआ है, उसको प्राप्त करने के लिये कामना का पूर्णतया त्याग होना चाहिये। कामनाओं के त्याग और समता प्राप्ति के लिए भगवान श्रीकृष्ण अध्याय २ श्लोक ४१ में मनुष्य को व्यवसायात्मिक (निश्चित) बुद्धि करने को कहते है। उसी विषय का पुनः वर्णन इस श्लोक में करते है और कहते है कि साधक, कामना का निशेष (पूर्णतय) रूप से त्याग करने के लिये दृढ़ संकल्प करे।

इस श्लोक से यह भी स्पष्ट होता है कि योग सिद्धि के लिये निशेष रूप से कामना का त्याग अनिवार्य है।

कामना का पूर्णतय किस प्रकार हो इस का वर्णन इस और अगले श्लोक में करते है।

सांसारिक विषयों (वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, देश, काल, घटना, परिस्थिति आदि) को लेकर मन में जो तरह-तरह की स्फुरणाएँ होती हैं, उन स्फुरणाओं में से जिस स्फुरणा में प्रियता, सुन्दरता और आवश्यकता दिखती है, वह स्फुरणा ‘कामना’ का रूप धारण कर लेती है। अथार्त यह विषय सुख देने वाला है, अच्छा है या उपयोगी है, इस प्रकार का भाव होना ‘कामना’ का रूप धारण करना है। मनुष्य कामना पूर्ति के लिये संकल्प लेता है और कार्यरत हो जाता है।

उसी प्रकार, जिस स्फुरणा में यह विचार आता है कि ‘ये विषय (वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, देश, काल, घटना, परिस्थिति आदि) अप्रिय, ‘सुन्दर अथवा उपयोगी’ नहीं हैं, तो उसमें द्वेष भाव हो जाता है। जिस विषय में द्वेष भाव हो जाता है, मनुष्य उस विषय के लिये कार्य ‘न’ करने का संकल्प लेता है। अन्यथा वह उस कार्य का संकल्प लेता है जिससे की उसका, उस विषय से वियोग हो जाये।

अतः साधक को चाहिये कि, उसका किसी भी कार्य को करने अथवा न करने का संकल्प कामना अथवा द्वेष पूर्ति नहीं होना चाहिये। साधक के सभी कार्य प्राप्त कर्तव्य जो समाज हित के लिये ही हो उसके लिये होने चाहिये।

मनुष्य का ऐसा विचार रहता है की संसार के विषयों में सुख है। इस कारण मनुष्य संसार के विषयों का चिन्तन करता है; मन में संसार के विषयों को लेकर अनेक प्रकार की स्फुरणाएँ होती रहती हैं। जिस स्फुरणा से मनुष्य अपना सम्बन्ध मान लेता है, वह स्फुरणा कामना में परिवर्तित हो जाती है।

अतः साधक को चाहिये की वह निश्चय करे की संसार के विषयों में सुख नहीं है। नित्य सुख केवल परमात्मा में ही है। ऐसा संकल्प करके, साधक को चाहिये की वह   संसार के विषयों से अपना सम्बन्ध का त्याग करे।

संसार के विषयों से अपने सम्बन्ध का त्याग किस प्रकार करे, इसका वर्णन अगले (अध्याय ६ श्लोक २५) में हुआ है।

PREVIOUS                                                                                                                                          NEXT

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]

Read More

अध्याय