भावार्थ:
संसार के विषयों से अपने सम्बन्ध का त्याग करने के लिये साधक केवल परमात्मा का ही चिन्तन करे, संसार का चिन्तन न करे। परमात्मा का चिन्तन (ध्यान योग) किस प्रकार हो, इसका विस्तृत वर्णन अध्याय ६ श्लोक १० से अध्याय ६ श्लोक २० में हुआ है।
साधक एकान्त समय में मन को केवल परमात्मा में ही स्थापन करे, और कुछ भी चिन्तन न करे। मन में संसारिक विषय की कोई तरंग अगर पैदा हो भी जाय तो उस तरंग को परमात्मा का ही स्वरूप माने और दृष्टा भाव से उसको देखे और उपरीत हो जाय। उस तरंग में न राग करे और न ही उसका विरोध करे। कारण की राग और विरोध दोनों से विषय का अपने साथ सम्बन्ध हो जाता है। उसकी अपेक्षा करें, और उससे उदासीन हो जायँ।
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण स्वीकार करते है कि योग साधना की सिद्धि तुरन्त नहीं होती। इस में समय लगता है।
साधक जब परमात्मा में मन लगाने का अभ्यास करता है, तब संसार की बातें याद आती हैं। इससे साधक घबरा जाता है कि जब मैं संसार का काम करता हूँ, तब इतनी बातें याद नहीं आतीं, इतना चिन्तन नहीं होता। परन्तु जब परमात्मा में मन लगाने का अभ्यास करता हूँ, तब मन में तरह-तरह की बातें याद आने लगती हैं!
योग प्रक्रिया को करते हुए प्रायः साधकों को उकताहट एवं निराशा होती है, कि व्यवहार काल में इन्द्रियों के विषयों के साथ सम्बन्ध हो ही जाता है, फल में आसक्ति हो ही जाती, ध्यान अभ्यास करते समय सांसारिक विचार आ ही जाते है। इतना समय व्यतीत हो गया, तत्त्वप्राप्ति नहीं हुई, तो अब क्या होगी कैसे होगी?
अतः भगवान् श्रीकृष्ण सावधान करते हैं कि साधक को योग का अभ्यास करते हुए सिद्धि प्राप्त न हो, तो भी उकताना नहीं चाहिये, प्रत्युत धैर्य रखना चाहिये। योग प्रक्रिया और उपराम होने का अभ्यास धीरे-धीरे – धैर्य पूर्वक, एवं बुद्धि के दृढ़ निश्चय के साथ करे।
यहां पुनः विचारधीन होने की आवश्यकता है कि कामना का त्याग कार्यों का त्याग नहीं है। कर्तव्य रूपी कार्य तो मनुष्य को अवश्य ही करने है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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