श्रीमद भगवद गीता : २७

कामना रहित और ब्रह्म की अनुभूति करने वाला पाप रहित साधक उत्तम सुख को प्राप्त होता है।

 

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।

उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ।।६-२७।।

 

जिसका मन प्रशान्त है, जिसका रजोगुण (विक्षेप) शांत हुआ है, और जो पापरहित (अकल्मषम्) है ऐसे ब्रह्मरूप हुए योगी को उत्तम सुख प्राप्त होता है। ।।६-२७।।

 

भावार्थ:

अन्तःकरण में कामना का पूर्णतया रूप से त्याग की प्रक्रिया का विषय पूर्व के तीन श्लोकों (अध्याय ६ श्लोक २४ से अध्याय ६ श्लोक २४) में आया है। उस कामना त्याग के विषय के साथ भगवान् श्रीकृष्ण इस श्लोक में एक विषय और जोड़ते है। भगवान् श्रीकृष्ण कहते है कि साधक को सभी सांसारिक विषयों में परमात्मा का स्वरूप देखना चाहिये।

अर्थात साधक को सांसारिक पदार्थ, प्राणी में राग-द्वेष नहीं करना चाहिये। स्वयं के माने हुये शरीर से ममता और अहंता नहीं करनी चाहिये।

अध्याय ५ श्लोक १८ में भगवान् श्रीकृष्ण ने सभी प्राणियों में समभाव रखने को कहा है। अध्याय ६ श्लोक ८ में भगवान् श्रीकृष्ण ने सभी पदार्थों में समभाव रखने को कहा है। यह तभी सम्भव है जब साधक सभी प्राणी-पदार्थ में केवल परमात्मतत्व को देखता है।

इस प्रकार, जो कामना से पूर्ण रूप से रहित है और सब ओर परमात्मतत्व का ही अनुभव करता है, उसका अन्तःकरण सर्वथा शान्त रहता है।

और क्योकि उसको माने हुए शरीर के प्रति ममता, अहंता नहीं है, कोई कार्य स्वयं के लिये नहीं है, इसलिये वह पाप रहित हो जाता है।

अंततः साधक विषमता और विकार से रहित हो कर उस उत्तम सुख को प्राप्त होता है जो नित्य है।

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