भावार्थ:
‘योगयुक्तात्मा’ जिस योगी का अन्त:करण योग में स्थित है उसके लिए यह पद, आया है। योग में स्थित योगी के अन्त:करण की स्थिति किस प्रकार की होती है, उसका वर्णन अध्याय ६ श्लोक २० से अध्याय ६ श्लोक २३ में हुआ है।
योग युक्त आत्मा का व्यवहार काल में किस प्रकार का आचरण होता है उसका वर्णन इस श्लोक से अध्याय ६ श्लोक ३२ तक में किया गया है।
योग युक्त आत्मा समस्त विभक्त प्राणियों को समान भाव से देखता है। वह किसी भी प्राणी, पदार्थ में भेदभाव नहीं रखता, न वह किसी के प्रति राग-द्वेष रखता है।
कारण की योग युक्त आत्मा अपने अन्त:करण मे परमात्मा को देखता है और वो ही आत्म स्वरूप वह अन्यों मे देखता है। अर्थात योगी अपने स्वरूप को समस्त प्राणियों में देखता और समस्त प्राणियों के स्वरूप को अपने में देखता है। कारण की सब जगह केवल परमात्मा स्वरुप ही है।
इस श्लोक से स्पष्ट होता है कि साधक की योग में स्थिति तभी है, जब वह संसार-समाज से व्यवहार करता है। और व्यवहार काल में वह समस्त प्राणियों को सम भाव से देखता है। संसार से सन्यास लेने से योग की सिद्धि नहीं है। ध्यानयोग, योग साधना में सहायक है परन्तु स्वयं में पूर्ण योग सिद्धि नहीं है।
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