श्रीमद भगवद गीता : ०३

योग में स्थित होने का निश्चय ही परम शांति प्राप्ति का कारण है, और कर्तव्य-कर्म उसकी साधना।

 

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।

योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ।।६-३।। 

 

योग में स्थित होने के लिये मननशील साधक के लिये कर्तव्य-कर्म को करना साधन है; योग में स्थित होने का निश्चय ही परम शांति को प्राप्त करने का कारण है। ।।६-३।।

 

भावार्थ:

इस श्लोक में ‘मुनि’ उस मनुष्य के लिये प्रयोग हुआ है जो अपना कल्याण करने का विचार रखता है। मनुष्य का कल्याण है, परम शान्ति को प्राप्त करना में। परम शान्ति प्राप्त होती है, अन्तःकरण में समता लाने से। समता में स्थित होना ही योग है, ऐसा गीता में अध्याय २ श्लोक ४८ में वर्णन हुआ है।

समता में स्थित, अर्थात योग में स्थित होने के लिये मनुष्य को सर्व प्रथम योग में स्थित होने का निश्चय करना अनिवार्य है। इसलिये भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि “योग में स्थित होने का निश्चय ही परम शांति को प्राप्त करने का कारण है”।

अतः जब तक मनुष्य योग सिद्धि का संकल्प नहीं करता, बुद्धि में एक मात्र निश्चय नहीं करता, तब तक वह योग में स्थित नहीं हो सकता। इसी विषय को भगवान श्रीकृष्ण ने अध्याय २ श्लोक ४१ में कहा है।

निश्चय करने के बाद क्या करना है?

इसके लिये भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि योग सिद्धि के लिये साधना करना आवश्यक है। और कर्तव्य-कर्म को करना ही मनुष्य की साधना है। अगर वह कर्तव्यों को नहीं करता है, तो उसको समता की प्राप्ति नहीं हो सकती और उसका योग सिद्ध नहीं हो सकता।

अतः मनुष्य के पास जो भी प्राकृत पदार्थ है, उनको वह दूसरों की सेवा में लगा दे। क्योकि शरीर, मन और बुद्धि, भी प्राकृत पदार्थ में आती है, इसलिये उनको भी दूसरों की सेवा में लगा देना ही योग साधना है। ऐसा करने से सम्पूर्ण क्रियाओं का प्रवाह स्वयं के लियी न हो कर संसार की तरफ हो जाता है। और मनुष्य भोग, कामना, आसक्ति का त्याग कर पाता है।

मनुष्यों में कर्म (सकामभाव से अपने माने हुए मन-इन्द्रियाँ की भोग वृति की पूर्ति के लिय क्रिया) करने का एक वेग रहता है, जिसको योग की विधि से कर्तव्य-कर्म करके ही मिटाया जा सकता हैं।

पूर्व और इस श्लोक में योग के लिये कार्य करना आवश्यक कहा गया है। कारण की, कार्य करने पर जो फल की प्राप्ति-अप्राप्ति है, उसमें साधक की समता है या नहीं- इसका पता तभी लगेगा, जब वह कार्यों को करेगा।

कार्य केवल और केवल प्रकृति की सेवा (कर्तव्य-कर्म) के लिये हो, अपने माने हुए शरीर के लिये केवल निर्वाह मात्र के लिये होना चाहिये।

यह कर्तव्य-कर्म ही मनुष्य का सनातन धर्म है। योगरूढ़ होने पर साधक को जो शान्ति का अनुभव होता है वही की परमात्मतत्व प्राप्ति है।

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