भावार्थ:
मनुष्य का जब तक शरीर से सम्बन्ध रहता है, तब तक वह स्वयं और अन्य प्राणियों को एकाकी भाव से नहीं देख सकता। परन्तु जब साधक योग युक्त हो जाता है। अर्थात :
तब योगी समदर्शी हो जाता है। समदर्शी साधक के अन्तःकरण में द्वैत का भाव नहीं रहता और वह सब में केवल परमात्मा को ही देखता है। अर्थात परमात्मा उसकी अन्तःकरण रूपी दृष्टि (भाव) से अदृश्य नहीं होते और परमात्मा भी अन्तःकरण में स्थित रहते है- अदृश्य नहीं होते।
श्लोक के सन्दर्भ मे:
जो मुझे सबमें और सब को मुझमें देखता है। यहाँ प्रयुक्त “मैं” शब्द का अर्थ आत्मा है न कि देवकी पुत्र कृष्ण।
‘पश्यति‘ (देखना) पद का अर्थ आँखों से देखना नहीं है, अपितु अन्तःकरण में सभी प्राणियों एवं स्वयं के प्रति समदर्शी, एकत्व भाव को अनुभव करना है। सभी प्राणियों में एकत्व भाव को अनुभव करना ही परमात्मा को अनुभव करना है।
परमात्मतत्व को इन्द्रियाँ, मन, और बुद्धि से जाना नहीं जा सकता, इसका वर्णन अध्याय २ श्लोक १८ मे हुआ है। परन्तु साकार रूप में स्थित प्रकृत्ति, जिसके होने का कारण परमात्मतत्व है, ऐसा विवेक होने पर परमात्मतत्व को अनुभव किया जा सकता है। परन्तु मनुष्य में अहंकार और ममता होने के कारण परमात्मतत्व अनुभव में नहीं आता और वह अदृश्य रहता है। अहंकार को त्यागने पर योगी स्वयं परमात्मस्वरूप बन जाता है और सब कुछ – सब जगह केवल और केवल परमात्मतत्व ही रहे जाता है।
परमात्मतत्व से विमुखता का कारण केवल अहंकार ही है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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