श्रीमद भगवद गीता : ३१

एकत्वभाव में स्थित योगी की प्राणियों की सेवा परमात्मा की सेवा है।

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।

सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।।६-३१।।

 

जो एकत्वभाव में स्थित हुआ सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित मेरा भजन करता है, वह योगी वह सब कुछ बर्ताव करता हुआ भी सर्वथा मुझ में स्थित रहता है। ।।६-३१।।

 

भावार्थ:

यहां ‘मां’ पद का अर्थ मनुष्य रूप में वासुदेव कृष्ण नहीं है, अपितु परमात्मतत्व है।

योग स्थित साधक, संसार के सब पदार्थ, प्राणियों और स्वयं में केवल परमात्मा को ही देखता है। अतः उसमें भाव होता है कि, सब में एक ही तत्व (परमात्मतत्व) है। इसी के लिये ‘एकत्वभाव‘ पद आया है।

इस प्रकार योग स्थित साधक जब सांसारिक व्यवहार, समाजिक सेवा, कर्त्तव्यों का पालन करता है तब वह परमात्मा को भजता है। अर्थात परमात्मा की ही सेवा करता है।

कारण कि एकत्वभाव भाव से सभी प्राणियों में परमात्मा को देखना और प्राणियों के कल्याण के लिये कार्य करना,  परमात्मा के लिये कार्य करना है।

भजति पद का अर्थ भजन कीर्तन करना नहीं है अपितु परमात्मा तत्व के लिये कार्य करना है। अर्थात योगी के सभी कार्य प्रकृत्ति के सेवा हेतु होते है। कारण कि परमात्मा ही साकार प्रकृत्ति के रूप में प्रतिष्ठित है।

इस प्रकार वह योगी धर्म का हर प्रकार से पालन करता हुआ परमात्मतत्व में ही स्थित रहता है।

 

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