श्रीमद भगवद गीता : ३२

परम योगी महापुरुष अन्यों के सुख-दुःख निवारण हेतू तत्पर रहता है।

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।

सुखं वा यदि वा दुःखं सः योगी परमो मतः।।६-३२।।

 

हे अर्जुन! महापुरुष अपने समान ही सब प्राणियोंमें सुख और दुःखको तुल्यभावसे देखता है, और किसीके लिये भी प्रतिकूल आचरण नहीं करता। और वह परम योगी माना गया है। ।।६-३२।।

 

भावार्थ:

योग स्थित योगी, का अन्त:करण शुद्ध होता है। वह विषमता और विकार से रहित होता है। इस कारण वह स्वयं सांसारिक सुख-दुःख से रहित होता है।

परन्तु वह अन्य प्राणियों के सुख-दुःख के निवारण हेतू उसी प्रकार प्रयत्न करता जैसे वह उसके स्वयं के हो।

इस प्रकार का भाव रहने पर उसके द्वारा वर्ण, आश्रम, देश, सम्प्रदाय आदिका भेद न रखकर सबको समान रीतिसे सुख पहुँचानेकी स्वाभाविक चेष्टा होती है। इसी प्रकार पशु-पक्षी, वृक्ष-लता आदि स्थावर-जङ्गम सभी प्राणियों को भी समान रीति से सुख पहुँचाने की चेष्टा होती है और साथ-ही-साथ उनका दुःख दूर करने का भी स्वाभाविक उद्योग होता है।

वह स्वयं से कोई ऐसा आचरण नहीं करता जो अन्य के लिये प्रतिकूल हो। अर्थात वह स्वयं से अधिक अन्य प्राणियों को महत्त्व देता है।

यहाँ विशेष बात ध्यान देने की यह है कि योगी अन्य के लिये प्रतिकूल परिस्थिति उत्पन्न न हो इसके लिये वह मनुष्य धर्म से च्युत नहीं होता।

अर्थात परिवार, समाज, देश और प्रकृति के प्रति जो कर्तव्य है, उनका पालन करना प्राथमिकता है, फिर चाहे उस पालन से अन्य के लिये प्रतिकूल परिस्थिति उत्पन्न होती हो।

ऐसा योग स्थित योगी की दृष्टि में सिवाय परमात्माके कुछ नहीं  रहता और वह नित्ययोग और नित्यसमतामें स्थित रहता है। हे अर्जुन! इस प्रकार का आचरण करने वाला महापुरूष होता है और वह मेरे लिये परमयोगी है।

इस श्लोक से स्पष्ट होता है कि योग में स्थित योगी की समाज सेवा करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है।

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