श्रीमद भगवद गीता : ३३

अर्जुन उवाच – मन की चंचलता के कारण योग को सिद्ध करना सम्भव नहीं है।

अर्जुन उवाच

योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।

एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात् स्थितिं स्थिराम् ।।६-३३।।

 

अर्जुन ने कहा: हे मधुसूदन! आपने जो समत्वभावरूप योग कहा है, उसको मैं मन की चंचलता के कारण इस योग की अचल स्थिति को नहीं देखता हूं। ।।६-३३।।

 

भावार्थ:

योग में स्थित योगी की स्थिति किस प्रकार की होती है उसका वर्णन अध्याय ६ श्लोक २० से अध्याय ६ श्लोक २३ में हुआ है। उस स्थिति में स्थित रहने में मन को संयमित करना अनिवार्य है और ध्यान योग उस प्रक्रिया में सहायक है।

परन्तु मन की चंचलता के कारण अर्जुन ध्यान योग को सिद्ध करने में असफलता का भाव देखते है।

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