श्रीमद भगवद गीता : ३४

चञ्चल, प्रमथनशील, दृढ़ और बलवान् मन को निग्रह करना कठिन है।

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।।६-३४।।

 

क्योंकि हे कृष्ण! यह मन बड़ा ही चञ्चल प्रमथनशील, दृढ़ और बलवान् है। उसका निग्रह करना मैं वायुकी तरह अत्यन्त कठिन मानता हूँ। ।।६-३४।।

 

भावार्थ:

क्योंकि हे कृष्ण यह मन बड़ा ही चञ्चल है। यह मन केवल अत्यन्त चञ्चल है इतना ही नही किंतु प्रमथनशील भी है अर्थात् शरीरको क्षुब्ध और इन्द्रियोंको विक्षिप्त यानी परवश कर देता है। तात्पर्य यह हुआ कि जब कामना मन और इन्द्रियोंमें आती है, तब वह साधकको महान् व्यथित कर देती है, जिससे साधक अपनी स्थिति पर नहीं रह पाता।

मन बड़ा बलवान् है किसीसे भी वशमें किया जाना अशक्य है। साथ ही यह बड़ा दृढ़ भी है। अर्थात् एक बार यह स्वेच्छाचारी मन किसी विषय का चिन्तन प्रारम्भ कर दे तो उसे उससे परावृत्त करना सरल कार्य नहीं होता।

ऐसे लक्षणों वाले इस मन का विरोध करना मैं वायुकी भाँति दुष्कर मानता हूँ। अभिप्राय यह कि जैसे वायुका रोकना दुष्कर (कठिन) है उससे भी अधिक दुष्कर मैं मनका रोकना मानता हूँ।

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