भावार्थ:
भगवान श्रीकृष्ण ने जब अध्याय ६ श्लोक १० से ध्यान योग अभ्यास का वर्णन आरभ किया तो अर्जुन को यह ज्ञात हुआ की योग की सिद्धि के लिये ध्यान योग प्रक्रिया पूर्ण और एक अलग प्रक्रिया है।
अर्जुन का यह विचार है और अन्य मनुष्यों का भी यह विचार होता है कि जब मनुष्य योग के लिये आरूढ़ होता है तब उसको संसार का त्याग करना पड़ता है और अभी वह जो संसारिक जीवन को जीने के लिये कार्य करता है उन सब को त्यागना होता है। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण कहते है की त्याग कामना का है, भोग का है, संसारिक पदार्थों का नहीं है। त्याग कार्यों का नहीं है। अंतर् केवल इतना है की पहले सभी कार्य स्वयं (माने हुए शरीर) के लिये थे, और अब वह सब कार्य समाज के लिये है।
अतः इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण वर्णन करते है कि वैराग्य (राग का त्याग) से और योग के अभ्यास से मन को नियमित किया जा सकता है। राग का त्याग व्यवहार काल में ही किया जा सकता है।
बुद्धि में विवेक जाग्रति- सांख्य योग से, कार्यों में समता – कर्म योग से, इन्द्रियों और मन का निमायित होना – ध्यान योग से, कार्य प्रकृति के लिये और कार्यों में अहंता का त्याग – भक्ति योग से। इन सब योग का समावेश ही पूर्ण योग प्रक्रिया है।
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