श्रीमद भगवद गीता : ३७

अर्जुन – योगसिद्धि न होने पर अन्त समय में मनुष्य की क्या गति होती है?

अर्जुन उवाच

अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।

अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ।।६-३७।।

 

अर्जुन बोले – हे कृष्ण! जिसकी साधनमें श्रद्धा है, पर जिसका प्रयत्न शिथिल है, वह अन्त समय में अगर योग अभ्यास से विचलित मन वाला हो जाय, तो वह योगसिद्धि को प्राप्त न करके किस गति को चला जाता है? ।।६-३७।।

 

भावार्थ:

अध्याय ६ श्लोक ३३  एवं अध्याय ६ श्लोक ३४ में अर्जुन अपना स्पष्ट मत प्रस्तुत करते है कि मन की चंचलता के कारण, योग की अचल स्थिति को वह नहीं देखते। भगवान श्री कृष्ण, अर्जुन के कथन को स्वीकार तो करते है, परन्तु कहते है कि मन को सयंमित अभ्यास के द्वारा किया जा सकता है। अतः इसमें समय लगता है।

अधीरता के कारण अर्जुन अभ्यास को प्रभावी नहीं मानते और उनको लगता है की इतना समय लगाना व्यर्थ सा है। इसी कारण वह कहते है कि साधक में साधना के प्रति श्रद्धा होने पर भी, अगर अभ्यास में शिथलता के कारण योग सिद्धि में समय अधिक लग गया और मनुष्य मृत्यु को प्राप्त हो गया, तो उसकी क्या गति होगी?

दूसरी सम्भावना यह है कि अभ्यास करते-करते मन विचलित हो गया (कामना-भोग कर बैठा) और साधक मृत्यु को प्राप्त हो गया। ऐसी अवस्था में साधक की मृत्यु उपरान्त क्या गति होगी?

मनुष्य की यह विचित्र मनोस्थिति होती है कि जीवित अवस्था से अधिक, उसको मृत्यु के बाद उसका क्या होगा, इसकी चिंता रहती है। प्राप्त जीवन का इस जीवन काल में  सदुपयोग किस प्रकार हो, कल्याण किस प्रकार हो, इसका विचार नहीं होता। परन्तु मृत्यु के बाद क्या होगा इस की विचार अधिक होता है।

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