श्रीमद भगवद गीता : ३९

अर्जुन द्वारा संशय का निराकरण करने की प्राथना।

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः।

त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ।।६-३९।।

 

हे कृष्ण मेरे इस संशयको निःशेषतासे छेदन (निराकरण) करने के लिये आप ही योग्य हैं; क्योंकि आपके अतिरिक्त अन्य दूसरा कोई भी इस संशय का नाश करने में सम्भव नहीं है। ।। ६-३९।।

 

भावार्थ:

हे कृष्ण! मेरे इस संशय को निःशेषता से काटने के लिये अर्थात् नष्ट करने के लिये आप ही समर्थ हैं क्योंकि आप ही योग युक्त है। आप बिना अभ्यास, परिश्रम के सर्वत्र सब कुछ जानने वाले हैं। आपके समान जानकार कोई हो सकता ही नहीं। आप साक्षात् भगवान् हैं और सम्पूर्ण प्राणियों की गति-आगति को जानने वाले हैं।

इस संशय का निराकरण करके मेरे मन के विक्षेपों को शान्त कर सकते है।

अभ्यास काल में साधक लघु, अल्प विषयानन्द का त्याग कर देता है और जब तक वह योग में स्थित नहीं होता तब तक उसको योग सिद्धि से परमान्द की प्राप्ति भी नहीं होती। अर्जुन का प्रश्न है की अगर अभ्यास काल में किसी कारण वश, मन विचलित हो गया तो उसके पास न तो संसारके भोग ही रह जायगे और न ही उसको योग की प्राप्ति होगी। अतः ऐसा साधक तो कही का भी नहीं रह जायगा। वह तो छिन्नभिन्न हो जायगा।

 

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