श्रीमद भगवद गीता : ०४

सन्यास (त्याग) – कामना, कर्मों में आसक्ति, भोग एवं अहंता का है।

 

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।

सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ।।६-४।। 

 

जब (साधक) न इन्द्रियों के भोगों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस समय सर्व संकल्पों के संन्यासी को योगारूढ़ कहा जाता है। ।।६-४।।

 

भावार्थ:

अध्याय ४ श्लोक १९ में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है की मनुष्य के सभी कार्य कामना पूर्ति के संकल्प से रहित होने चाहिये। उसी विषय को भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में पुनः कहते है।

योगारूढ़ वह मनुष्य है :-

  1. जिसके सभी कार्य कामना पूर्ति के संकल्प से रहित होते है। जिसने कामना पूर्ति के संकल्पों से सन्यास ले लिया है।
  2. जिस मनुष्य ने विकार-विषमताओं के त्याग का दृढ़ संकल्प ले लिया है।
  3. जो इन्द्रियों के विषय का भोग नहीं करता।
  4. जो कार्यों से अपना कोई सम्बन्ध नहीं रखता।
  5. जिस के सभी कार्य समाज हित के लिये होते है।
  6. और जिसने अहंता का त्याग कर दिया है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त होने वाले शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध – इन पाँचों विषयों में; पदार्थ, परिस्थिति, घटना, व्यक्ति आदिमें और शरीरके आराम, मान, बड़ाई आदि में भोग बुद्धि से भोग न करे। प्रत्युत यह अनुभव करे कि ये सब विषय, पदार्थ आदि आये हैं और प्रतिक्षण चले जा रहे हैं। ये आने-जानेवाले और अनित्य हैं। ऐसा अनुभव कर के इनसे निर्लेप रहे।

कार्यों से किसी प्रकार का सम्बन्ध न जोड़े। ऐसा विचार करे की प्राप्त कर्तव्य परमात्मा से प्राप्त हुए है और उनसे प्राप्त शरीर के द्वारा वह कार्य किये जा रहे है। इस में कर्ता भाव करने का कोई कारण नहीं है।

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