श्रीमद भगवद गीता : ४१

आश्रय रहित साधक के पुण्य शाश्वत होते है और वह पुनः श्रीमन्त के घर में जन्म लेता है।

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।

शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।।६-४१।।

 

योगभ्रष्ट साधक के पुण्य शाश्वत होते है और, वह श्रीमन्त (शुभ कर्मो का आचरण करने वाले) के घर में जन्म लेता है। ।।६-४१।।

 

भावार्थ:

योग आरूढ़ साधक के साधना की तीन अवस्थाये होती है।

प्रथम

वह साधक, जिसके सभी कार्य समाज कल्याण के लिये होते है, परन्तु तत्व ज्ञान न होने के कारण उनकी कार्यों-शरीर में आसक्ति रहती है। इस प्रकार के साधक का वर्णन अध्याय ३ श्लोक २५ एवं अध्याय ३ श्लोक २६ में हुआ है। इस अवस्था के साधक का कामना और भोग से त्याग हो गया है। अर्थात वह संसार के आश्रय से रहित है।

द्वितीय

वह साधक जो कार्यों-शरीर में आसक्ति के त्याग के लिये साधना करता है और उसके सभी कार्य समाज कल्याण के लिये होते है। अभ्यास द्वारा वह ममता, अहंता, आसक्ति एवं संसार के आश्रय से रहित होने के लिये साधना करता है। द्वितीय अवस्था के साधक का विवेक जाग्रत होता है। उसकी बुद्धि को परमात्मतत्व का ज्ञान तो है परन्तु परमात्मतत्व उसकी अनुभूति में नहीं है। उसके लिये वह साधना रत है।

तृतीया

वह साधक, जो पूर्ण रूप से योग में स्थित हो गया है।

प्रथम अवस्था में स्थित साधक की कार्यों-शरीर में आसक्ति होने के कारण उसके समाज कल्याण के लिये गये कार्य पुण्य कर्म होते है। भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में कहते है कि इस अवस्था के साधक मृत्यु को प्राप्त होने पर, उनका पुनः जन्म श्रीमन्त के घर में होता है। इस अवस्था के साधक के पुण्य किसी भी लोक में समाप्त नहीं होते और पुनः जन्म लेने पर भी साथ रहते है।

श्रीमन्त परिवार केवल शुभ कर्मो को करने वाला होते है और वह योग आरूढ़ होते है।

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